'मुग़ल-ए-आज़म' के शिल्पी के. आसिफ़ की याद में शानदार जलसा

 - राजेश बादल -

भोपाल। कालजयी फ़िल्म 'मुग़ल-ए-आज़म' को परदे पर गढ़ने वाले अमर निर्देशक के. आसिफ़ का यह जन्म शताब्दी वर्ष है। इस मौके पर उनके अपने शहर इटावा में शानदार जलसा हुआ। इसमें देश भर से आए प्रशंसक जुटे। शताब्दी का सफ़र पूरा कर चुके इस्लामिया इंटर कॉलेज में एक भव्य  समारोह में बड़ी तादाद में लोगों ने के. आसिफ़ को अपनी धड़कनों में महसूस किया। इसी संस्था में उन्होंने अपनी पढ़ाई की थी। चंबल इंटरनेशनल फ़िल्म फेस्टिवल पाँच साल से उनकी याद में ऐसे कार्यक्रम करता आ रहा है।

इस जलसे के लिए मैं बतौर मुख्य अतिथि इटावा पहुँचा था। मेरे साथ वरिष्ठ पत्रकार और अनेक अख़बारों के संपादक रहे भाई डॉक्टर राकेश पाठक भी थे। उन्होंने इस गरिमामय कार्यक्रम का बख़ूबी संचालन किया।विश्व सिनेमा के गहरे जानकार और ख्याति प्राप्त फ़िल्म समीक्षक अजित रॉय भी ख़ास तौर पर मौजूद थे। पत्रकार साथी और फ़िल्म समीक्षक मुर्तज़ा अली ख़ान भी मेहमान के तौर पर शिरकत करने पहुँचे थे। इटावा नगरपालिका के पूर्व चेयरमैन फुरकान अहमद और इस्लामिया इंटर कॉलेज के प्रबंधक एडवोकेट मो. अल्ताफ तथा क्षेत्र के अनेक प्रतिनिधि और समाज के तमाम वर्गों के लोग उपस्थित थे।

आसिफ़ की याद में फ़िल्म संस्थान बने - चर्चा की शुरूआत साहित्यकार डॉ.कुश चतुर्वेदी ने की। उन्होंने के. आसिफ़  की पारिवारिक पृष्ठभूमि बताई। के. आसिफ की ननिहाल के सदस्य फज़ल यूसुफ़ ख़ान ने अपने पूर्वजों के उस घर को राष्ट्रीय स्मारक में बदलने का सुझाव दिया। सभी ने इस पर सहमति जताई। प्रस्ताव का समर्थन करते हुए मैंने वहाँ एक फिल्म प्रशिक्षण संस्थान बनाने का भी सुझाव दियामेरी राय थी कि हिंदुस्तान के नक़्शे में पूरब और पश्चिम पुणे और कोलकाता में राष्ट्रीय स्तर के दो फ़िल्म संस्थान हैं, लेकिन सेंट्रल इंडिया में भी एक अच्छे फिल्म इंस्टीट्यूट की बेहद जरूरत है। इसके लिए आवाज उठाई जानी चाहिए।


इटावा का वह घर, जहां  के. आसिफ़ का जन्म हुआ था।

कला रूह और बाज़ार देह है - इस मौक़े पर 'फ़िल्म संसार : कला या बाज़ार' विषय पर परिसंवाद भी हुआ। मैंने कहा कि वास्तव में कला आत्मा है और बाज़ार देह है। कला अमर है, बाज़ार नश्वर है। के. आसिफ़ के लिए फ़िल्म एक पूजा थी, कला थी। वही उनका मज़हब था और वही उनका सर्जन था। तभी वे परदे पर एक कविता रच सके। उनका एक संस्मरण भी मुझे याद आया। जब 'मुग़ल-ए-आज़म' बन रही थी तो फ़िल्म के निर्माता शापोरजी पालोनजी बढ़ते ख़र्च से दुखी हो गए। उस ज़माने में एक फ़िल्म तीन-चार लाख में बन जाती थी। लेकिन यह अमर कृति डेढ़ करोड़ में बनी। के. आसिफ़ ने एक बार असली मोती माँगे। शापोरजी ने इकार कर दिया। के. आसिफ ने कहा कि असली मोतियों के गिरने की जो आवाज़ होती है, वे उसे भी सुनाना चाहते हैं। शापोरजी तैयार नहीं हुए। रिश्ते उस मोड़ पर पहुँचे कि बातचीत तक बंद हो गई।

असली मोती खरीदे गए थे फ़िल्म के लिए - शूटिंग रुक गई। महीनों बाद ईद का त्योहार आया। एक दिन शापोरजी बड़े थाल में सोने चांदी के सिक्के लेकर के. आसिफ के पास गए। बोले, 'यह तुम्हारी ईदी है।' के. आसिफ ने सिर्फ़ एक सिक्का लिया और कहा कि मुझे ईदी मिल गई। अब बचे सिक्कों से असली मोती ले आइये। इसके बाद सिक्के आए। तराजू के एक पलड़े पर के. आसिफ बैठे और दूसरे पलड़े पर असली मोती तौले गए। जब मोतियों का वज़न 12 पौंड से अधिक हो गया तब  शूटिंग दोबारा शुरू हो पाई। 

काल्पनिक किरदारों से प्रेम कर बैठे लोग - विश्व सिनेमा के जानकार और प्रसिद्ध फिल्म समीक्षक अजित राय ने कहा कि एक-एक घटना को पर्दे पर ऐसे उतारा कि उसकी तपिश या शीतलता को लोगों ने सिनेमाहॉल में बैठकर महसूस किया। उन्होंने कहा कि अनारकली की कहानी इतिहास में नहीं है, लेकिन के. आसिफ़ ने काल्पनिक कहानी और क़िरदारों को ऐसे पेश किया जिसे हर कोई सच मान बैठा। परदे पर ऐसा करना हर किसी के बस की बात नहीं है।

पत्रकार -लेखक  मुर्तजा अली खान ने कहा कि के. आसिफ़ ने असंभव को संभव करके दिखाया। के. आसिफ के जन्म सदी वर्ष में डाक टिकट जारी होना चाहिए। वरिष्ठ पत्रकार डॉक्टर राकेश पाठक ने कहा कि के. आसिफ ने फ़िल्म के ज़रिए हिन्दू-मुस्लिम एकता और मुहब्बत का पैग़ाम दिया है। उनकी ज़िंदगी के तमाम पहलुओं को समेटती हुई एक मुकम्मल किताब और उन पर दस्तावेज़ी फ़िल्म बनना चाहिए। प्रेस क्लब इटावा के अध्यक्ष दिनेश शाक्य, इस्लामिया इंटर कालेज के प्राचार्य गुफ़रान अहमद, घुमंतू सामाजिक कार्यकर्त्ता, लेखक,और वृत्त चित्र निर्माता शाह आलम, डॉ. रिपुदमन सिंह यादव के समूचे आयोजन के सूत्रधार थे।

आसिफ़ ने फूल बेचे और दर्जीगीरी की - इसी शहर में फूल बेचने से लेकर मायानगरी में कपड़े सिलने तक का काम करके अपने संघर्ष को अंजाम देने वाले के. आसिफ़ ने जिस घर में दुनिया को पहली बार अपनी आँखों को देखा था, वह आज भी इटावा में गुज़रे ज़माने की दास्तान का गवाह है। हम लोगों ने जब उस घर को देखा तो एक हूक सी उठी कि विश्व सिनेमा को एक नायाब कोहिनूर की सौग़ात देने वाले की याद में हम आज तक एक शानदार फ़िल्म संस्थान या स्मारक तक नहीं दे पाए।मुग़ल ए आज़म देखकर न जाने कितनी नस्लों ने फिल्मों का ककहरा पढ़ा है। एक काल्पनिक कथा को परदे पर जिस तरह साकार किया गया, वह आज भी रोमांच पैदा करती है। 

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