सिनेमाई धारा पर पाबंदियां लगाने की कोशिश

 

सिनेमैटोग्राफ (संशोधन) विधेयक, 2021 के मसौदे को लेकर फिल्म उद्योग में गहरा आक्रोश है। यह विधेयक केंद्र सरकार को उन फिल्मों की फिर से जांच करने की शक्ति देता है, जिन्हें सार्वजनिक स्क्रीनिंग के लिए सेंसर बोर्ड द्वारा पहले ही मंजूरी दे दी गई है। यानी केंद्र सरकार सेंसर बोर्ड के फैसले को संशोधित करने में सक्षम होगी, यदि वह उचित समझे। जाने-माने अभिनेता, फिल्मकार कमल हासन ने तो सिनेमैटोग्राफ बिल के मसौदे की आलोचना करते हुए यहां तक कहा कि सिनेमा, मीडिया और साहित्यकार भारत के तीन प्रतिष्ठित बंदर नहीं हैं।

- श्याम माथुर -

जो लोग देश में लोकतांत्रिक मूल्यों को कायम रखने के लिए लगातार जद्दोजहद कर रहे हैं और भरसक यह कोशिश कर रहे हैं कि बोलने और विचार व्यक्त करने की आजादी की हर कीमत पर रक्षा की जाए, उनके लिए केंद्र सरकार भी लगातार नई चुनौतियां पेश कर रही हैं। अभी करीब दो महीने पहले केंद्र सरकार ने फिल्म प्रमाणपत्र अपीलीय न्यायाधिकरण (एफसीएटी) को भंग कर दिया था और अब सरकार ने  सिनेमैटोग्राफ एक्ट, 1952 में संशोधन का प्रस्ताव सामने रख दिया है। इस एक्ट में प्रस्तावित प्रमुख संशोधनों में केंद्र सरकार को किसी भी फिल्म की फिर से जांच करने की शक्ति देना भी शामिल है, जिसका अर्थ यह हुआ कि किसी भी फिल्म के खिलाफ किसी तरह की शिकायत मिलने पर सरकार पहले से ही प्रमाणित फिल्म की पुनर्परीक्षाकरने का आदेश दे सकती है। इस बिल का यह मसौदा केंद्र सरकार द्वारा फिल्म प्रमाणपत्र अपीलीय न्यायाधिकरण को समाप्त करने के कुछ ही हफ्तों बाद आया है, जो फिल्म निर्माताओं के पास उनकी फिल्मों के प्रमाणन को चुनौती देने के लिए एकमात्र अपीलीय निकाय था।

सिनेमैटोग्राफ एक्ट भारत में सार्वजनिक प्रदर्शन के लिए रिलीज होने वाली फिल्मों के सर्टिफिकेशन को निर्देशित करने वाला एकमात्र कानून है। यह मुंबई में मुख्यालय वाले सीबीएफसी को नियंत्रित करता है, जिसे भारतीय सिनेमाघरों में रिलीज होने वाली प्रत्येक फिल्म को प्रमाणित करने का अधिकार है। वर्ष 2013 में सिनेमैटोग्राफ एक्ट के तहत प्रमाणन से जुड़े मुद्दों की पड़ताल के लिए न्यायमूर्ति मुकुल मुद्गल की अध्यक्षता में एक विशेषज्ञ समिति का गठन किया गया था। इसके बाद फिल्म सर्टिफिकेशन के लिए व्यापक दिशानिर्देश विकसित करने के लिहाज से 2016 में फिल्म निर्माता श्याम बेनेगल के नेतृत्व में एक और पैनल स्थापित किया गया था। दोनों पैनल ने उम्र के आधार पर प्रमाणन की मांग का समर्थन किया और सीबीएफसी की शक्तियों को सीमित करने के लिए अपनी सिफारिशें प्रस्तुत की थीं, लेकिन इनकी रिपोर्टों को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया था। इसके बाद, सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने पिछले साल लोकसभा में आईटी से संबंधित एक कमेटी की रिपोर्ट की समीक्षा की और यह नवीनतम मसौदा विधेयक उसी का परिणाम है।

इस मसौदा विधेयक में प्रस्तावित प्रावधानों पर भारतीय फिल्म उद्योग से कड़ी प्रतिक्रिया देखने को मिली है, खास कर सरकार को पुनरीक्षण शक्तियां प्रदान करने वाले धारा के सन्दर्भ में। फिल्म उद्योग को आशंका है कि मसौदा विधेयक में प्रस्तावित प्रावधानों के आधार पर सरकार सुपर सेंसर की भूमिका में सामने आ सकती है और ऐसी कोई भी फिल्म जो सरकार को असहज करती हो, उसके प्रदर्शन को रोका जा सकता है। ज्यादातर लोगों का कहना है कि सरकार ने जब एफसीएटी को हटाया था, तभी उसने अपनी मंशा जाहिर कर दी थी। एफसीएटी जैसे संवैधानिक निकाय को खत्म करने के बाद अब सेंसर बोर्ड को भी खत्म करने की दिशा में सरकार आगे बढ़ रही है। माना जा रहा है कि सुपर सेंसर के रूप में कंटेंट पर सरकार का सख्त नियंत्रण कायम करने के लिए यह संशोधन किया गया है।

हम जानते हैं कि सेंसर बोर्ड सरकार द्वारा स्थापित एक निकाय है और इसमें ऐसे लोग शामिल हैं, जिन्हें सरकार जिम्मेदार मानती है और जिनकी समाज में कुछ हैसियत है। और अगर सीबीएफसी नाम को कोई संस्था है, तो आपको किसी फिल्म का मूल्यांकन करने के लिए सीबीएफसी के ऊपर और उससे परे और भी कोई नियंत्रण क्यों चाहिए? जाहिर है कि इरादे नेक नहीं हैं और मीडिया को पूरी तरह अपने नियंत्रण में करने की तैयारी है।

स्वाभाविक तौर पर सूचना-प्रसारण मंत्रालय की इस पहल के बाद फिल्मकार गहरे गुस्से में हैं और ज्यादातर फिल्मकारों का साफ तौर पर कहना है कि यह कदम मीडिया को नियंत्रित करने की दिशा में एक बड़ा गंभीर कदम है। श्याम बेनेगल जैसे वरिष्ठ फिल्मकार प्रस्तावित संशोधनों को गैर जरूरी बता चुके हैं। वे कहते हैं कि मैं वाकई समझ नहीं पा रहा हूं कि इसकी जरूरत क्या है। वे मीडिया को नियंत्रित करना चाहते हैं। हम लोकतांत्रिक देश हैं, हमारा मीडिया स्वतंत्र होनी चाहिए।उन्होंने कहा कि केन्द्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड का तंत्र मौजूद है, तो किसी प्रकार का बाहरी नियंत्रण नहीं होना चाहिए, खास तौर पर सरकार का।

तीन हजार से अधिक लोगों ने प्रस्तावित संशोधनों के विरोध में सूचना और प्रसारण मंत्रालय को एक पत्र भी भेजा है। इस पत्र पर जिन लोगों के हस्ताक्षर हैं, उनमें विशाल भारद्वाज, अनुराग कश्यप और शबाना आजमी भी शामिल हैं। पत्र में कहा गया है, ‘हम सिफारिश करते हैं कि केंद्र सरकार को किसी फिल्म के प्रमाणपत्र को वापस लेने की शक्तियां विधेयक में से हटाई जानी चाहिए। पत्र में यह भी कहा गया है कि सिनेमैटोग्राफ अधिनियम में संशोधन का सरकार का प्रस्ताव फिल्म बिरादरी के लिए एक और झटका है और इससे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और लोकतांत्रिक असहमति के खतरे में पड़ने की आशंका है।

सरकार को शायद इस बात की जानकारी नहीं है कि मौजूदा अधिनियम में पहले से ही यह प्रावधान है कि यदि कोई फिल्म घोर असंवैधानिक या राष्ट्रीय अखंडता के लिए खतरा है, तो सरकार उस फिल्म को वापस ले सकती है। फिल्म बिरादरी के कई प्रमुख सदस्यों ने पहले ही 1952 के सिनेमैटोग्राफ अधिनियम में प्रस्तावित परिवर्तनों पर चिंता व्यक्त की है, जो देश के सिनेमा परिदृश्य की कथा को नियंत्रित करने में प्रत्यक्ष सरकारी हस्तक्षेप की अनुमति देता है। इस नए बिल से फिल्म निर्माता की आजादी और फिल्म की कमाई दोनों पर असर पड़ने वाला है। रचनात्मक अभिव्यक्ति पर पहले से ही शासी निकाय के पास इतनी शक्ति है। इस तरह के कानून के साथ, केवल एक ही कथा होने जा रही है और वो यह कि आप या तो सरकार समर्थक फिल्म निर्माता हो सकते हैं या बिल्कुल भी नहीं बोल सकते हैं!

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