खतरे में है मीडिया की साख
कमाई आज पत्रकारिता की मुख्य कसौटी बन चुकी है और सिक्कों की खनक में बुलंद प्रतिरोध के स्वर सुनाई ही नहीं देते। नेताओं, कॉर्पोरेट घरानों और पत्रकारों के गठजोड़ की आहटों के बीच समूची समकालीन पत्रकारिता की साख पर ही संकट आ खड़ा हुआ है।
- एक तरफ मीडिया का तेजी से विस्तार हो रहा है और दूसरी तरफ उतनी ही तेजी से मीडिया अपने सामाजिक सरोकारों से दूर खिसकता जा रहा है।
- कमाई पत्रकारिता की मुख्य कसौटी बन चुकी है और सिक्कों की खनक में बुलंद प्रतिरोध के स्वर अब सुनाई ही नहीं देते।
- नेताओं, कॉर्पोरेट घरानों और पत्रकारों के गठजोड़ की आहटों के बीच समूची समकालीन पत्रकारिता की साख पर ही संकट आ खड़ा हुआ है।
'यदि मुझे कभी यह निश्चित करने के लिए कहा जाए कि अखबार और सरकार में से किसी एक को चुनना है, तो मैं बिना हिचक यही कहूंगा कि सरकार चाहे न हो, लेकिन अखबारों का अस्तित्व अवश्य रहे।' अमेरिका के तीसरे राष्ट्रपति और 'डिक्लेरेशन ऑफ इंडिपेंडेंस' के प्रमुख लेखक थॉमस जेफरसन ने करीब दो सौ साल पहले जब यह बात कही थी, तब निश्चित तौर पर वे एक लोकतांत्रिक समाज में अखबारों की उपयोगिता और उनके महत्त्व को रेखांकित कर रहे थे। यह वो दौर था जब बोलने और विचार व्यक्त करने की आजादी पर खतरों का साया नहीं के बराबर था। आज हालात बदल गए हैं। अब अखबारों की, या व्यापक अर्थों में कहें, तो मीडिया की भूमिका किसी एक देश अथवा क्षेत्र तक सीमित नहीं है। इस दौर में जब बोलने और विचार व्यक्त करने की आजादी पर तमाम तरह के खतरे मंडराते नजर आ रहे हैं और तर्क तथा विवेक के लिए कोई स्थान बाकी नहीं बचा है, वहां मीडिया की अंदरूनी हलचल की पड़ताल करना भी जरूरी हो जाता है।
आज मीडिया ने हमारे समाज को हर क्षेत्र में प्रभावित किया है। समाज की समूची जीवन शैली, सोच-विचार और यहां तक कि रिश्तों की बुनावट को भी मीडिया ने प्रभावित किया है। दूसरे शब्दों में कहें, तो समाज पर सबसे ज्यादा आक्रामक प्रभाव मीडिया का ही नजर आता है। और मीडिया में, विशेष तौर पर प्रिंट मीडिया में जनमत बनाने की जो अद्भुत शक्ति निहित है, उससे तो शायद ही कोई इनकार करेगा। आज मीडिया का अर्थ सिर्फ समाचार पत्रों तक सीमित नहीं है, बल्कि इलैक्ट्रॉनिक मीडिया और सोशल मीडिया के रूप में एक पूरी दुनिया हमारे सामने है।
यह अलग बात है कि मुख्य धारा का मीडिया अब हाशिये के समाज के मुद्दों, मुहिम और संघर्षों का सक्रिय सहभागी नहीं है। प्रमुख मीडिया संस्थानों की अपनी एक अलग वैचारिक मनोभूमि है और जैसा कि हमारे दौर के समर्थवान और जुझारू पत्रकार पी. साईनाथ कहते हैं कि समाचार संस्थान अपने आप में कारोबार हैं, सत्ता प्रतिष्ठान हैं, इसलिए ये आपसे सच नहीं बोल सकते। ज्यादातर लोगों का भी यही मानना है कि आज मीडिया बाजार उन्मुख हो गया है और ऐसी सूरत में उसके सामाजिक सरोकार भी कहीं पीछे छूटते जा रहे हैं।
मैगसेसे अवार्ड विजेता पत्रकार पी. साईनाथ ने जब ग्रामीण भारत में हो रहे बदलावों की पहचान के लिए अपने पोर्टल पीपल्स आर्काइव ऑफ रूरल इंडिया की शुरुआत की थी, तो ज्यादातर लोगों ने उनसे यही सवाल किया था कि आपका रेवेन्यू मॉडल क्या है? यानी वे यह जानना चाहते थे कि आप इस पोर्टल के जरिए कमाई कैसे करेंगे? जवाब में वे साफ कहते थे कि उनके पास कोई रेवेन्यू मॉडल नहीं है, लेकिन पलट कर वे यह सवाल भी करते थे कि अगर रचनाकार के लिए रेवेन्यू मॉडल का होना पहले जरूरी होता तो आज हमारे पास कैसा साहित्य या कलाकर्म मौजूद होता? अगर वाल्मीकि को रामायण या शेक्सपियर को अपने नाटक लिखने से पहले अपने रेवेन्यू मॉडल पर मंजूरी लेने की मजबूरी होती, तो सोचिए क्या होता।
जाहिर है कि बाजार की ताकतों के आगे नतमस्तक हमारे मीडिया की प्राथमिकताएं बड़ी तेजी से बदली हैं और यह भी स्वाभाविक है कि बदलाव के इस फेर में सामाजिक विकास और आम लोगों की बेहतरी से जुड़े सवाल कहीं बहुत पीछे छूट गए हैं। सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज की रिपोर्ट कहती है कि ग्रामीण भारत को देश के शीर्ष छह अखबारों के पहले पन्ने पर सिर्फ 0.18 फीसदी जगह मिल पाती है और देश के छह बड़े समाचार चैनलों के प्राइम टाइम में 0.16 फीसदी कवरेज ही मिल पाता है। पत्रकारिता की नैतिक आभा में चमकने वाले मीडिया से जुड़े ऐसे ही वैचारिक सवालों को आम तौर पर मीडिया संगठन भी अनदेखा करते आए हैं। जबकि मीडिया की अपनी एक सामाजिक और राजनीतिक जिम्मेदारी भी है और यह जिम्मेदारी हमारी कोशिशों में प्रतिबिंबित भी होनी चाहिए। भले ही हम अपने पाठकों-दर्शकों-श्रोताओं को एक स्वप्निल दुनिया में नहीं ले जाएं, लेकिन हमारी प्रस्तुति उन्हें उद्वेलित अवश्य करे। उन्हें अपनी संस्कृति, अपनी धरती और अपनी माटी से जोडक़र रखे और जिसमें उन्हें अपने वर्तमान समय, समाज और जीवन की झलक नजर आए। यह मीडिया के वृहत्तर समाज में एक ऐसी कोशिश होनी चाहिए, जिसमें तर्क, विवेक और प्रतिरोध के लिए भी भरपूर गुंजाइश हो।