बहादुर आर्मी चीफ की दिलचस्प दास्तान
-मन्जु माहेश्वरी-
सैम होर्मूसजी फ्रेमजी जमशेदजी मानेकशॉ की
गिनती देश के अब तक के सफलतम आर्मी कमांडरों में होती है। ब्रिटिश इंडियन आर्मी से
शुरू हुआ उनका शानदार मिलिट्री करियर 4 दशकों तक चला। फील्ड मार्शल की रैंक पाने
वाले वह भारतीय सेना के पहले अधिकारी थे। साल 1971 में उन्हीं के नेतृत्व में भारत
ने पाकिस्तान को हराया था और बांग्लादेश का जन्म हुआ। सैम मानेकशॉ की तत्कालीन
प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से खूब बनती थी। दोनों की नजदीकी इस हद तक थी कि सैम मानेकशॉ
उनसे बातचीत के दौरान बेहद कैजुअल रहते थे और स्वीटी, लड़की जैसे संबोधनों का इस्तेमाल करते थे।
दरअसल यह किताब बेस्ट सेलर अंग्रेजी
पुस्तक 'फील्ड मार्शल सैम
मानेकशॉ: द मैन एंड हिज टाइम्स'
का हिंदी अनुवाद है। अनुवाद अक्षय कुमार सिंह चौहान ने किया है और मूल पुस्तक
सेवानिवृत्त ब्रिगेडियर बेहराम एम. पंथकी और उनकी पत्नी जिनोब्या पंथकी ने लिखी
है। ब्रिगेडियर ने खुद लंबे अरसे तक सैम के मातहत काम किया है और उन्हें एक
उदीयमान युवा लेफ्टिनेंट कर्नल से फील्ड मार्शल तक बढ़ते हुए करीब से जाना है।
1971 के युद्ध में पाकिस्तान पर विजय हासिल
करना सैम के जीवन की शानदार कामयाबी थी। जब जिया उर रहमान ने 'बांग्लादेश गणतंत्र' की आजादी का ऐलान कर दिया, पूर्वी पाकिस्तान का अस्तित्व समाप्त हो
गया, नतीजतन वहां गृह युद्ध
शुरू हो गया और लाखों शरणार्थी भारत आने लगे। यह भी जानना खास है कि उस समय
प्रधानमंत्री और मंत्रिपरिषद का विचार था कि तुरंत युद्ध छेड़ दिया जाए तब अप्रैल
71 में सैम ने तुरंत युद्ध के लिए इंकार कर दिया और कहा, 'युद्ध करना
मेरा कर्तव्य है और युद्ध जीतना भी मेरा कर्तव्य है।' उन्होंने प्रधानमंत्री को कहा कि मुझे
पूरी छूट दी जाए, युद्ध करना
अंतिम विकल्प होगा तो वह योजनाबद्ध तरीके से उनके अनुसार होगा। सैम को चारों और
पैनी नजर रखनी थी। यह सुनिश्चित करना था कि युद्ध शुरू होने के बाद अस्त्र -शस्त्र, गोला- बारूद, साजो- सामान, राशन आदि सामान की आपूर्ति निर्बाध होती
रहे, मौसम भी साथ दे । इसी
बीच अगस्त में सोवियत संघ के साथ 20 वर्षों का मित्रता और सहयोग का समझौता संपन्न
हो गया, जिससे भारत को
पाकिस्तान के लिए अमेरिका और चीन का सहयोग रोकने को सामरिक और राजनीतिक समर्थन भी
मिला। 31 दिसंबर को तीसरी बार भारत-पाक युद्ध छिड़ गया। इस दौरान सेनाध्यक्ष ने
रेडियो के माध्यम से पाकिस्तानी सैनिकों से हथियार डालने का संदेश आरंभ कर दिया और
इसके असर से 2 हफ्ते पहले ही युद्ध समाप्त हो गया। यह सैम का अद्भुत ब्रह्मास्त्र
था। इस तरह उस युद्ध का अंत हुआ,
जिसके साथ 93 हजार पाकिस्तानी अफसरों एवं सैनिकों ने बिना शर्त हिंदुस्तान की
फौज को आत्मसमर्पण कर दिया। सैम की रणनीति कारगर हुई। इसकी पुष्टि इंदिरा गांधी के
पत्र से होती है, 'युद्ध के दौरान तीनों सेनाओं के दरमियान
प्रभावशाली समन्वय बनाए रखना आपके कुशल नेतृत्व का परिणाम है। मैं खासतौर से आपके
मूल्यवान सहयोग, स्पष्ट सलाह
और स्थिरता के लिए आभार व्यक्त करती हूं,
जो इन संकटमय दिनों में मुझे प्राप्त हुए।'
इस तरह पुस्तक रोचक और सरल प्रवाहपूर्ण
शैली में घटनाओं को ज्यों का त्यों बयान करती है, पाठक को बांध लेती है। सेवानिवृत्ति के बाद भी प्रधानमंत्री
इंदिरा गांधी ने युद्ध बंदियों का कार्यभार उन्हें ही दिया। उनके कैरियर में यह
दूसरा सेवा विस्तार था। बाद में उन्हें इंग्लैंड के राजदूत और महाराष्ट्र के
राज्यपाल बनने का प्रस्ताव भी मिला पर वे कोई भी सरकारी पद लेकर अपनी स्वतंत्रता
के साथ समझौता नहीं करना चाहते थे। कई सरकारी पदों को ठुकरा कर सैम ने निजी
कंपनियों के साथ काम करना स्वीकार किया। वहां भी निदेशक मंडल में बुद्धि प्रखरता
और अनुशासन से उन्होंने प्रबंध संचालन को
सुदृढ़ बनाया।
सैम 1948 में कश्मीर पर संयुक्त राष्ट्र
संघ की पेरिस में होने वाली कॉन्फ्रेंस में यूरोप जा रहे थे, उसी जहाज
में इंदिरा गांधी निजी यात्रा पर थी,
वही दोनों की पहली मुलाकात हुई। जाहिर है कि इंदिरा गांधी से उनकी दोस्ती के
घनिष्ठ संबंध स्थापित हुए, जो देश के लिए
महत्वपूर्ण और फायदेमंद रहे। श्रीमती गांधी अनौपचारिक रूप से सैम से सलाह- मशविरा
करती रहीं। पर 1975 में इंदिरा के आपातकाल लगाने पर उन्हें बहुत निराशा हुई। बेशक, 1984 में स्वर्ण मंदिर में टैंक भेजने के
फैसले को भी उन्होंने गलत माना। इसलिए इंदिरा ने जब सैम को राष्ट्रीय एकता समिति
का सदस्य बनने का निमंत्रण दिया,
उन्होंने अस्वीकार कर दिया। हालांकि इंदिरा गांधी के असामयिक निधन से उन्हें
गहरा दुख पहुंचा, असहमतियों के
बावजूद वह उनका सम्मान करते थे। गौरतलब है कि इसके बाद राजीव गांधी ने सिख
संप्रदाय और कांग्रेस बीच अविश्वास को कम करने के लिए सरकार के प्रतिनिधि के तौर
पर शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी से बात करने के लिए सैम को भेजा। सैम किसी हद
तक दोनों के बीच समझौता कराने में सफल भी हुए।
सैन्य साथियों के साथ वे बहुत सरल थे, उनकी परेशानियों को हमेशा दूर करने में
लगे रहते थे, मनोबल बढ़ाते
थे। सेना के वेतन -भत्तों में सुधार के लिए उन्होंने भरसक प्रयास किए। वह
जानते थे कि मातहतों को कहां छूट देनी है
और कहां अनुशासन तथा नियम पालन के लिए सख्ती करनी है। अधिकारियों से उनकी बातचीत
आराम से पर व्यावहारिक, विश्वसनीय और
दृढ़ होती थी। उनकी अटल ईमानदारी की ख्याति उनसे आगे चलती थी। न्यायप्रियता और
सत्यनिष्ठा के जो पैमाने सैम ने सबके लिए तय किए थे, उन पर खुद भी पूरी तरह अमल करते थे।
यहां यह जानना जरूरी है कि 1979 में नेपाल
के सेनाध्यक्ष ने सैम को आमंत्रित किया और राजा महेंद्र ने भारतीय सेना में
कार्यरत गोरखाओं के लिए सैम के किए गए कल्याणकारी कार्यों के उपलक्ष्य में उन्हें 'त्रिशक्ति पट्टा' से सम्मानित किया। उसी वर्ष राजस्थान में
उन्हें राष्ट्र के प्रति सेवाओं के लिए 'महाराणा प्रताप
पुरस्कार' से नवाजा गया।
2004 में इंदिरा गांधी खुला विश्वविद्यालय ने उन्हें मानद 'डॉक्टरेट ऑफ ह्यूमन लेटर्स' से सम्मानित किया।
यह पुस्तक सैम की जिंदगी के अनछुए पहलुओं
को भी उजागर करती है कि उनकी पत्नी सिल्लू का उनकी प्रगति में कितना बड़ा योगदान
था। 2001 में सिल्लू के निधन के बाद उनके जीवन की ज्योति धीमी पड़ गई। निदेशकीय
जिम्मेदारियों को पूरा करने के लिए,
अपनी परवाह किए बिना वे हमेशा बोर्ड की बैठकों में व्यस्त रहते । 27 जून 2008
में फील्ड मार्शल सैम निमोनिया से जंग हार गए। अमृतसर के सिख उन्हें अपना मानते हैं, तो तमिल लोग यह सोच कर खुश होते हैं कि
उन्होंने नीलगिरी में अपना घर बसाया। यह पुस्तक हम लोगों के लिए पथ प्रदर्शक है कि
जीवन मूल्यों और नैतिकता को बरकरार रखते हुए भी हम जिंदगी में आसमान की बुलंदियों
को छू सकते हैं, मुश्किल को
मुमकिन बना सकते हैं।
पुस्तक : फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ - अपने समय का चमकता सितारा
लेखक: ब्रिगेडियर बेहराम एम. पंथकी (सेवानिवृत्त) और जिनोब्या पंथकी
अनुवाद : अक्षय कुमार सिंह चौहान
प्रकाशक : नियोगी बुक्स, ब्लॉक डी, बिल्डिंग नंबर 77, ओखला औद्योगिक क्षेत्र फेज - 1, नई दिल्ली - 110020