नेताओं की बदजुबानी और बड़बोलापन
सियासती शतरंज में शह और मात का खेल खेलने वाले हमारे नेता आजकल शब्दों की मर्यादा से भी खेल रहे हैं। हालांकि यह कोई नया खेल नहीं है, लेकिन हैरान तब होती है जब प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री जैसे संवैधानिक पदों पर बैठे लोग भी राजनीतिक विमर्श या संवाद का स्तर गिराने में अपना योगदान दे चुके हैं। सियासी बदजुबानी के इस दौर में एक केंद्रीय मंत्री एक मुख्यमंत्री को चांटा लगाने की इच्छा सार्वजनिक रूप से जाहिर करे, इससे ज्यादा शर्मनाक बात हो नहीं सकती। हालांकि इस इच्छा की कीमत केंद्रीय मंत्री को जेल जाकर चुकानी पड़ी। ऐसे में हम हम अपने आप से सवाल करने लगते हैं कि क्या हमने ऐसे बदतमीज और बदजुबान लोगों के हाथों में देश की बागडोर सौंपी है।
- श्याम माथुर -
नेताओं की बदजुबानी और उनका बड़बोलापन खुद उनके
लिए कितना महंगा पड़ जाता है, इस सवाल का जवाब केंद्रीय
मंत्री नारायण राणे से बेहतर और कौन दे सकता है। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे
को अपशब्द कहने के मामले में केंद्रीय मंत्री राणे को गिरफ्तार कर सलाखों के पीछे भेज
दिया गया, जहां से जमानत मिलने के बाद ही वे बाहर आए। उन्होंने एक बयान
में कह दिया था कि ठाकरे को यह भी नहीं मालूम कि भारत कब स्वतंत्र हुआ था और इसके लिए
उन्हें एक झापड़ जड़ दिया जाना चाहिए। तमाम बड़ी राजनीतिक पार्टियों के लिए केंद्रीय मंत्री
नारायण राणे की गिरफ्तारी एक बहुत बड़ा सबक है, हालांकि पूरी संभावना
इस बात की है कि इससे शायद ही कोई सबक लेगा।
हाल के दौर में नारायण राणे का बयान निश्चित
रूप से निंदनीय था। एक केंद्रीय मंत्री एक मुख्यमंत्री को चांटा लगाने की इच्छा सार्वजनिक
रूप से जाहिर करे, इससे ज्यादा शर्मनाक बात हो नहीं सकती। राणे की पूर्व पार्टी
के कार्यकर्ताओं को उनके मौजूदा नेता के खिलाफ कही गई यह बात इतनी बुरी लग गई कि इस
बयान पर महाराष्ट्र में राणे के खिलाफ तीन अलग स्थानों पर सीधे एफआईआर ही दर्ज करा
दी गई। भारतीय दंड संहिता की जो धाराएं उनके खिलाफ लगाई गईं, उनमें 153ए
(1) (दंगे भड़काना), 506 (धमकाना) और 189 (सरकारी मुलाजिम को चोट पहुंचाने की धमकी
देना) शामिल हैं। और फिर देखते ही देखते वो हो गया जो पिछले 20 सालों में नहीं हुआ
था। इससे पहले 2006 में यह उपलब्धि तत्कालीन केंद्रीय कोयला मंत्री शिबू सोरेन के नाम
लिख दी गई होती, अगर उन्होंने गिरफ्तार होने से पहले मंत्रिपरिषद से इस्तीफा
ना दे दिया होता।
महाराष्ट्र में जो हुआ ऐसा ही घटनाक्रम
2001 में तमिलनाडु में जे जयललिता की सरकार के कार्यकाल में हुआ था, जब तमिलनाडु पुलिस
ने तत्कालीन केंद्रीय मंत्री मुरासोली मारन और टीआर बालू को गिरफ्तार कर लिया था। यह
भारत के इतिहास में केंद्रीय मंत्रियों की गिरफ्तारी का सबसे पहला मामला था। हालांकि
बाद में उन गिरफ्तारियों पर अदालत ने काफी सवाल उठाए और सरकारी अधिकारी और पुलिस दोनों
को फटकार लगाई। राणे के मामले में हमें देखना होगा कि यह कहां तक जाता है।
पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान वर्ष 2019 में
भी प्रचार के दौरान कुछ उम्मीदवार अपने बिगड़े बोल के चलते सुर्खियों में बने रहे। इन्होंने
चुनावी रैलियों में या सोशल मीडिया पोस्टों या मीडिया के सवालों के जवाब में विवादास्पद
टिप्पणियां कीं। इनमें हर दल के नेता सामिल रहे। पूर्व से पश्चिम तक और उत्तर से दक्षिण
तक कई उम्मीदवारों ने अमर्यादित भाषा का इस्तेमाल किया। उत्तर प्रदेश में समाजवादी
पार्टी के आजम खान और भाजपा के गिरिराज सिंह जैसे राजनेता अपने बड़ेबोलेपन और भाजपा
की प्रज्ञा सिंह ठाकुर और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के कन्हैया कुमार जैसे नेता अपने
आपत्तिजनक बयानों से लोगों का ध्यान आकर्षित करते रहे। वर्ष 2008 के मालेगांव विस्फोट
मामले में आरोपी प्रज्ञा ठाकुर भोपाल लोकसभा सीट से चुनाव लड़ीं। उन्होंने महात्मा गांधी
के हत्यारे नाथूराम गोडसे को ‘देशभक्त’ बताकर एक तीखी बहस छेड़ दी। ठाकुर के इस बयान
पर कांग्रेस ने कहा था कि ‘शहीदों का अपमान करना भाजपा के डीएनए में है।’ हालांकि बाद में
प्रज्ञा ठाकुर ने अपने बयान को लेकर माफी मांगी ली।
दक्षिण में, कर्नाटक में दक्षिण
कन्नड़ से सांसद नलिन कुमार कतील भी गोडसे विवाद में कूदे थे। उन्होंने कहा था, ‘गोडसे ने एक को
मारा,
मुम्बई हमले के दोषी अजमल कसाब ने 72 को, राजीव गांधी ने 17,000
लोगों को मारा। आप अंदाजा लगा सकते है कि इसमें कौन अधिक निर्दयी है।’ हालांकि बाद में
उन्होंने अपना बयान वापस ले लिया था।
हाल ही पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव के
दौरान राजनीतिक बयानबाजी में मर्यादा और शालीनता की धज्जियां उड़ाई गईं। लोकतंत्र के
महापर्व में टीएमसी नेता ममता बनर्जी ने सार्वजनिक मंचों से बीजेपी नेताओं को दुशासन, दुर्योंधन, दैत्य और राक्षस
की संज्ञा से ‘विभूषित’किया। इतना ही नहीं मीर जाफर, गद्दार जैसे शब्दों
से वो नेताओं को अलंकृत कर चुकी हैं। टीएमसी नेता शेख आलम तो इतने बावले हो गये कि
उन्होंने चार पाकिस्तान बनाने की बात कह डाली। शेख आलम का एक वीडियो सोशल मीडिया पर
वायरल हुआ, जिसमें अपने भाषण में शेख आलम ने कहा कि अगर भारत के तीस फीसदी
मुसलमान एक हो जाएं, तो हम चार पाकिस्तान बना देंगे।
इन बयानों को देखने और सुनने के बाद यह बात
साफ तौर पर कही जा सकती है कि देश की सियासत में भाषा की ऐसी गिरावट शायद पहले कभी
नहीं देखी गई। ऊपर से नीचे तक सड़कछाप भाषा ने अपनी बड़ी जगह बना ली है। चुनावों के दौरान
राजनेताओं के हर भाषण ने राजनीतिक विमर्श के पतन का नया कीर्तिमान रचा है। हैरान करने
वाली बात तो ये है कि इस तरह की अमर्यादित भाषा का इस्तेमाल करने में पक्ष और विपक्ष
दोनों तरफ के नेताओं में होड़ लगी रही। हमाम में सब नंगे होने को आतुर नजर आए। साफ है
कि राजनेताओं ने अपनी कर्कश भाषा और भाषण शैली को ही अपनी सबसे बड़ी राजनीतिक पूंजी
और अपनी सफलता का सूत्र मान लिया है।