सुप्रीम कोर्ट की परवाह किसे है?
सुप्रीम कोर्ट के राष्ट्रद्रोह कानून के दायरे
को सीमित करने सम्बन्धी निर्देश को अभी एक पखवाड़ा भी नहीं हुआ कि लक्षद्वीप में प्रशासन
ने टीवी बहस के दौरान की गई एक फिल्म निर्माता की टिप्पणी पर इस कानून के तहत मुकदमा
दर्ज कर लिया। इस तरह सिस्टम ने यह संकेत देने की कुत्सित कोशिश की है कि देश की शीर्ष
अदालत की टिप्पणियां भी उसके लिए कोई मायने नहीं रखतीं। सामाजिक कार्यकर्ता आयशा सुल्ताना
ने एक टीवी डिबेट में लक्षद्वीप के प्रशासक प्रफुल्ल पटेल के फैसलों की जमकर आलोचना
की थी और कोरोना को लेकर केंद्र सरकार पर ‘बायो वेपन’ चलाने का आरोप लगाया था। इसी बयान के आधार पर आयशा पर राजद्रोह
का मुकदमा दर्ज कर लिया गया।
- श्याम माथुर -
लंबे समय से प्रतिपक्ष के नेता आरोप लगाते
रहे हैं कि हाल के दौर में देश में संवैधानिक संस्थाओं की गरिमा और उनके सम्मान में
लगातार गिरावट आ रही है और न सिर्फ आम लोग, बल्कि सरकार के स्तर पर भी उनकी घोर उपेक्षा
की जा रही है। पिछले दिनों जब लक्षद्वीप की युवा फिल्मकार आयशा सुल्ताना पर राजद्रोह
का मुकदमा दर्ज हुआ, तो यह बात एक बार फिर साबित हुई कि देश के
सिस्टम को सुप्रीम कोर्ट जैसी संवैधानिक और प्रतिष्ठित संस्था की भी कोई परवाह नहीं
है। अभी करीब दो हफ्ते पहले ही सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि पुलिस को राजद्रोह कानून
का सोच-समझकर इस्तेमाल करना चाहिए और खास तौर पर सरकार की आलोचना करने के मामलों में
तो उसे इस कानून का बहुत कम उपयोग करना चाहिए। उच्चतम न्यायालय के इस अहम फैसले की
स्याही भी अभी नहीं सूखी थी कि लक्षद्वीप पुलिस ने सिर्फ एक बयान के आधार पर फिल्मकार
आयशा सुल्ताना के खिलाफ राजद्रोह का मुकदमा दर्ज कर लिया। हालांकि यह मुकदमा स्थानीय
बीजेपी नेता सी अब्दुल कादर हाजी की शिकायत पर दर्ज किया गया।
एक मलयालम टेलीविजन चैनल पर बहस के दौरान आयशा
सुल्ताना ने कथित तौर पर कहा, ‘लक्षद्वीप में कोविड-19 का एक भी केस नहीं
था। लेकिन अब रोजाना 100 केस आ रहे हैं। क्या केंद्र ने बायो वेपन चलाया है?
मैं ये साफ तौर पर कह सकती हूं कि केंद्र सरकार ने बायो वेपन के तौर
पर तैनाती की है।’ लक्षद्वीप भाजपा के अध्यक्ष अब्दुल खादर ने कवरत्ती पुलिस में आयशा के खिलाफ
शिकायत दर्ज कराई। उन्होंने कहा कि आयशा सुल्ताना ने जो कहा वह राष्ट्रविरोधी है। उनके
बयान से केंद्र सरकार की देशभक्ति की छवि को नुकसान पहुंचा है। शिकायत के बाद आयशा
सुल्तान पर देशद्रोह का केस दर्ज कर लिया गया। उनपर कवरत्ती पुलिस स्टेशन में धारा
124 ए और 153 बी (अभद्र भाषा) के तहत मामला दर्ज किया गया और पुलिस ने कई बार उनसे
पूछताछ की। राजद्रोह के आरोपों का सामना करने वाली फिल्मकार आयशा को केरल हाईकोर्ट
की शरण लेनी पड़ी, जहां हाईकोर्ट ने उन्हें इस मामले में अग्रिम
जमानत दे दी है।
लेकिन इस पूरे घटनाक्रम ने जिन सवालों को जन्म
दिया, वे आज भी जवाब मांग रहे हैं। सबसे अहम सवाल तो यही है कि क्या इस मामले में
लक्षद्वीप पुलिस ने सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देशों का पालन किया? हमारे लोकतंत्र में सरकार की ऐसी आलोचना जिसमें हिंसा का आह्वान न किया गया
हो, देशद्रोह नहीं है। और यह ऐसा सिद्धांत है, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने बार-बार स्थापित किया है। लेकिन विभिन्न राज्यों की
पुलिस बार-बार इसकी अनदेखी करती है। और लक्षद्वीप पुलिस ने भी यही किया।
जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता में सुप्रीम
कोर्ट की बैंच ने करीब एक पखवाड़े पहले ही कहा था, ‘हमारी राय ये है कि भारतीय
दंड संहिता की धारा 124ए, 153ए और 505 के मापदंडों के दायरे की
व्याख्या की आवश्यकता है, खासकर इलेक्ट्रानिक और प्रिंट मीडिया
के समाचार और जानकारियां देने के संदर्भ में। भले ही वो देश के किसी भी हिस्से में
चल रही सत्ता के आलोचना में ही क्यों ना हों।’ आयशा सुल्ताना पर दर्ज किए गए मुकदमे के संदर्भ
में इस सुप्रीम कोर्ट की इस टिप्पणी का आखिरी हिस्सा बेहद अहम है, जहां सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि‘भले ही वो देश के किसी भी हिस्से में चल रही सत्ता के आलोचना में ही क्यों न हों।’पूर्व में भी जब इस तरह के मामले सामने आए हैं, देश की
शीर्ष अदालत ने अपने दिशा-निर्देशों के अनुरूप ही फैसला दिया है और ज्यादातर मामलों
में पीड़ित पक्ष को राहत ही दी है। आयशा सुल्ताना के खिलाफ दर्ज देशद्रोह का यह मामला
भी शायद अदालत में टिक नहीं पाएगा, लेकिन तब तक हमारा सिस्टम
यानी पुलिस उसे पीड़ा झेलने के लिए मजबूर करती रहेगी। इससे दूसरे तमाम लोगों के बीच
यही संदेश जाएगा कि अगर उन्होंने सिस्टम के खिलाफ एक शब्द भी कहा, तो राजद्रोह का मुकदमा झेलने के लिए तैयार रहिए। यह सीधे-सीधे कानूनी प्रक्रिया
का दुरुपयोग है और हमारे लोकतंत्र को शोभा नहीं देता है।
गुजरात के पूर्व मंत्री और लक्षद्वीप के मौजूदा
प्रशासक प्रफुल खोड़ा पटेल ने हाल के महीनों में कई विवादित फैसले किए हैं और इन्हीं
के कारण लक्षद्वीप इन दिनों चर्चा में है। पटेल ने लक्षद्वीप में बीफ बैन कर दिया है
और शराब के सेवन पर लगी पाबंदी हटा दी है। इसके अलावा उन्होंने एक नया विकास प्राधिकरण
बनाने का प्रस्ताव दिया है जो लक्षद्वीप के किसी भी इलाके को डेवलपमेंट जोन घोषित करके
जमीन का अधिग्रहण कर सकता है। लक्षद्वीप के लोग इन बदलावों का कड़ा विरोध कर रहे हैं
और प्रांत में कई सप्ताह से प्रदर्शन चल रहे हैं। इसी मुद्दे पर टीवी बहस के दौरान
आयशा सुल्ताना ने उपरोक्त टिप्पणी की थी।
सुल्ताना ने जैविक हथियार शब्द का इस्तेमाल
करने से इनकार नहीं किया है लेकिन स्पष्टीकरण देते हुए कहा है कि उनका कहने का मतलब
यह था कि प्रफुल खोड़ा पटेल को केंद्र सरकार ने लक्षद्वीप पर थोपा है। अपने फेसबुक पोस्ट
में सुल्ताना ने कहा, ‘मेरे मदीने ने मुझे सिखाया है कि यदि तुम युद्ध की स्थिति में
हो तब भी अपनी मातृभूमि के साथ खडे़ रहे। ये बात मैं यहां इसलिए कह रही हूं क्योंकि
कुछ लोग मुझे देशद्रोही की तरह दिखा रहे हैं, इसकी वजह ये है
कि मैंने एक टीवी बहस के दौरान बायो वेपन शब्द का इस्तेमाल किया। सब ये जानते हैं कि
मैंने उन शब्दों का इस्तेमाल सिर्फ प्रफुल्ल पटेल के लिए किया था।’
सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट कहा है कि किसी बयान
को देशद्रोह नहीं माना जा सकता है, इसके बावजूद लक्षद्वीप पुलिस ने टीवी चैनल की
डिबेट में दिए गए बयान को आधार बनाकर राजद्रोह का मुकदमा दर्ज कर लिया। क्या इस तरह
सिस्टम ने यह संकेत देने की कुत्सित कोशिश की है कि देश की शीर्ष अदालत की टिप्पणियां
भी उसके लिए कोई मायने नहीं रखतीं? अगर वाकई ऐसा है, तो यह हम सब लोगों के लिए बेहद चिंता की बात होनी चाहिए।