हम लोग गिद्ध से भी गए गुजरे हैं!
- श्याम माथुर -
‘द वल्चर एंड द लिटिल गर्ल’ शीर्षक वाली तस्वीर में हमें साफ दिखता है कि गिद्ध भी उस बच्चे का मांस नोचने के लिए कम से कम उसके मरने का इंतजार कर रहा है। लेकिन आज जो हालात हैं, उसमें हम लोग जिंदा इंसानों के शरीर को नोचने में जुटे हैं और इस पर हमें जरा भी शर्म नहीं आ रही।
जयपुर। ‘द वल्चर एंड द लिटिल गर्ल’ शीर्षक वाले बेहद
चर्चित फोटो और इसके साथ जुड़ी बातों की जानकारी हम में से अनेक लोगों को होगी। अफ्रीकी
देश सूडान में पड़े भीषण अकाल की पीड़ा को कैप्चर करने वाली यह तस्वीर 26 मार्च, 1993 को ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ में प्रकाशित हुई
थी और इस तस्वीर को अपने कैमरे में कैद किया था साउथ अफ्रीका के फोटो जर्नलिस्ट केविन
कार्टर ने। केविन कार्टर का नाम पत्रकारों और फोटो जर्नलिस्ट्स के लिए नया नहीं है।
उन्हें 1994 में पत्रकारिता के सर्वश्रेष्ठ पुरस्कारों में से एक पुलित्जर अवार्ड से
सम्मानित किया गया था। केविन कार्टर 1993 में सूडान में पड़े अकाल के कवरेज के सिलसिले
में वहां गए थे। उन्होंने भूख से तड़प रहे बच्चे की तस्वीर खींची। उस तस्वीर में एक
गिद्ध भी था, जो बच्चे के मरने का इंतजार कर रहा था। जब वह फोटो अखबार में
छपा,
तो एक रिपोर्टर ने केविन से पूछा कि वहां कितने गिद्ध थे? फोटोग्राफर ने
कहा- एक। इस पर रिपोर्टर ने कहा कि एक नहीं, वहां दो गिद्ध थे। एक के
हाथ में कैमरा था। बाद में बच्चे को न बचाने की ग्लानि में फोटोग्राफर केविन कार्टर
ने आत्महत्या कर ली। किसी भी फोटो जर्नलिस्ट के लिए इससे बड़ा लांछन क्या हो सकता है
कि उसकी तुलना एक गिद्ध से की जाए!
‘द वल्चर एंड द लिटिल गर्ल’फोटो
जैसा कि केविन कार्टर ने बाद में बताया कि
साउथ सूडान के अयोध में एक बार वह अकाल पीड़ितों की तस्वीरें खींच रहे थे कि खुली झाड़ियों
में भटक गए। तभी उन्हें झाड़ियों से कुछ हिलने की आवाज आई और जब वो वहां पहुंचे तो दंग
रह गए। उन्होंने देखा कि एक छोटा-सा बच्चा, जो बिलकुल अधमरी हालत में
है,
जिसमें इतनी ताकत भी नहीं कि वह चल सके, वह रेंग-रेंग कर फीडर सेन्टर
तक जाने की कोशिश कर रहा था। इससे भी ज्यादा झकझोर देने वाली बात यह थी कि उस बच्चे
के पीछे एक गिद्ध लार टपकाए बैठा हुआ था। कार्टर ने इस दृश्य को कैमरे में कैद कर लिया।
बाद में उन्होंने कहा था कि वह करीब 20 मिनट वहां रुके थे। उन्हें उम्मीद थी कि गिद्ध
उड़ जाएगा। ऐसा नहीं हुआ तो केविन ने उसे वहां से खदेड़ा। इसके बाद वह एक पेड़ के नीचे
बैठ गए, सिगरेट सुलगाई और कुछ बुदबुदाते हुए रोने लगे।
केविन कार्टर
जब यह फोटो अखबार में छपा, तो इस तस्वीर ने अफ्रीका की पीड़ा और दुखों को दुनिया के सामने रख दिया। सैकड़ों की संख्या में लोगों ने अखबार को पत्र लिखे और बच्चे की खैरियत पूछी। अखबार ने बताया कि उन्हें नहीं पता कि वह बच्चा घर तक पहुंचा या नहीं। कई देशों के मीडिया में वह फोटो आई। केविन स्टार बन गए। लेकिन उनकी प्रफेशनल लाइफ और निजी जिंदगी, दोनों में सुकून नहीं था। एक फ्रीलांस जर्नलिस्ट की कठिनाइयों ने उन्हें काफी तोड़ दिया था, जिसमें न तो जॉब सिक्योरिटी है, न कोई हेल्थ इश्योरेंस और न ही लाइफ कवर। उनके दोस्तों के मुताबिक, केविन आत्महत्या के बारे में खुलकर बात करने लगे थे। पैसे खत्म होने की चिंता उन पर अक्सर दिखती थी। 27 जुलाई 1994 उनकी जिंदगी का आखिरी दिन था। जोहानिसबर्ग का वही उपनगर पार्कमोर, जहां केविन का बचपन गुजरा था, उन्होंने स्यूसाइड कर लिया। इसके लिए उन्होंने अपने पिकअप ट्रक इस्तेमाल किया। उससे निकली गैस कार्बन मोनोऑक्साइड ने उन्हें मौत की नींद सुला दिया। तब उन्हें सूडान में उस भूखी बच्ची और गिद्ध की फोटो खींचे हुए डेढ़ साल गुजर गए थे। केविन ने अफ्रीका में जो देखा और जिन परिस्थितियों में काम किया, वह किसी को भी तनाव में धकेल सकता था।
कोंग न्योंग - वह लड़का जो गिद्ध से बच गया
बहुत बाद में यह पता चला था कि तस्वीर में दिखाए गए जिस बच्चे को लड़की समझा गया, वह असल में लड़का था और उसका नाम था कोंग न्योंग। वह उस अकाल में बच गया था और इस घटना के चैदह साल बाद उसकी मौत मलेरिया से हुई।
इस पूरे घटनाक्रम की याद मौजूदा दौर में इसलिए
आई है कि वर्तमान कोरोना काल में हम लोग गिद्ध से भी बदतर बर्ताव करने लगे हैं। ‘द वल्चर एंड द
लिटिल गर्ल’ शीर्षक वाली तस्वीर में हमें साफ दिखता है कि गिद्ध भी उस बच्चे
का मांस नोचने के लिए कम से कम उसके मरने का इंतजार कर रहा है। लेकिन आज जो हालात हैं, उसमें हम लोग जिंदा
इंसानों के शरीर को नोचने में जुटे हैं और इस पर हमें जरा भी शर्म नहीं आ रही।
निजी अस्पतालों और उनके मेडिकल स्टाफ ने कोरोना मरीजों का इलाज करने के नाम पर खुली लूट मचा रखी है। सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि जिस बीमारी का कोई इलाज या कोई कारगर दवा पूरी दुनिया में ही नहीं है, उसके इलाज के नाम पर लाखों-करोड़ों का खेल हो रहा है। अस्पतालों में रोगी शैया की नीलामी हो रही है, जो ऊंचे दाम अदा कर सकता है, खरीद ले। बाजार में दवाओं की जमकर कालाबाजारी हो रही है, यहां तक कि ऑक्सीजन की भी सौदेबाजी हो रही है। चौतरफा मुनाफा कूटने की मानो होड़ सी मची है। अगर आप सोचते हैं कि कोरोना के कारण मौत के बढ़ते आंकड़ों को देखकर अगर लोगों के मन में वैराग्य या सेवा का भाव आ रहा है, तो आप सरासर गलत हैं। पैसा बनाने का कोई भी मौका लोग नहीं छोड़ना चाहते।
अस्पतालों से लेकर मरघट तक दलालों का बोलबाला
है। लाशोें पर बिजनेस हो रहा है। श्मशानों में सुलगती चिताओं के साथ जीवन मूल्य और
आदर्श भी राख में बदल रहे हैं। भ्रष्ट तरीके से कमाए गए पैसे के दलदल में इंसानियत
दम तोड़ रही है। और सिर्फ अस्पताल ही नहीं, बाजार में बैठा हर शख्स
इस माहौल का फायदा उठाकर अपनी जेबें भर लेना चाहता है। आम उपभोग की वस्तुएं तीन गुना
और इससे भी अधिक दाम पर बिक रही हैं। जो लोग सक्षम हैं, उन्हें इन हालात
से कोई फर्क नहीं पड़ता। निम्न वर्ग के लोग लगातार डर और आतंक के साये में जीवन बसर
कर रहे हैं। अब यही खेल कोरोना वैक्सीन को लेकर हो रहा है। दुनिया के दूसरे तमाम देशों
को वैक्सीन की खैरात बांटने वाली हमारी सरकार अपने ही लोगों को वैक्सीन उपलब्ध नहीं
करा पा रही है और लोगों को एड़ियां रगड़ते हुए मरने के लिए छोड़ दिया गया है।
क्या फिर से कोई केविन कार्टर हमारी तकलीफ
को अपनी तस्वीर के जरिये दुनिया के सामने लाएगा?