हिंदी पत्रकारिता दिवस: चुनौतियां तब भी थीं, आज भी हैं
- राजेश बादल -
बड़े घरानों के हितों-स्वार्थों का संरक्षण करना आज के दौर की
पत्रकारिता का विद्रूप चेहरा है। पत्रकारिता परदे के पीछे है और तमाम मीडिया घरानों
के धंधे सामने हैं। धंधे चमकाने के लिए अखबार और चैनल मंच पर हैं, बाकी सब
कुछ नेपथ्य में है।
करीब 195 साल पहले जब कानपुर से गए पंडित जुगल
किशोर शुक्ल ने देश की राजधानी कलकत्ता (अब कोलकाता) से हिंदी में साप्ताहिक ‘उदन्त मार्तंड
निकालने का निर्णय लिया तो वे जानते थे हठयोग साधना बहुत आसान नहीं है। अंग्रेजी
तथा कुछ अन्य भारतीय भाषाओं में रिसाले प्रकाशित हो रहे थे, लेकिन वे नक्कारखाने
में तूती की आवाज ही थे। उस दौर के विराट देश में धुर पूरब के किनारे से कोई समाचारपत्र
निकाल कर बंबई (अब मुंबई) के पश्चिम तट तक पहुंचाना या दक्षिण में कन्याकुमारी और उत्तर
में लद्दाख तक गोरों के खिलाफ आवाज पहुंचाना किसी भी उद्योगपति के लिए टेढ़ी खीर था
तो फिर शुक्ल जी की बिसात ही क्या थी। (माफ कीजिए यह काम तो आज भी सरल नहीं है)।
आज दिवस लौं उग चुक्यौ मार्तण्ड उदन्त /अस्ताचल
को जात है दिनकर दिन अब अंत /
इस तरह हिंदुस्तान का यह पहला हिंदी साप्ताहिक
दम तोड़ गया। इसके बाद के साल अंग्रेजों से मोर्चा लेती पत्रकारिता के थे। विचारों
की आग फैलाने वाले अनगिनत क्रांतिकारियों और
देशभक्तों ने इस मिशन में अपनी आहुतियां दीं। आजादी के बाद नेहरू युग अभिव्यक्ति की
आजादी और लोकतांत्रिक धारा को मजबूत करने वाला दौर था। लेकिन उसके बाद नए किस्म की
चुनौतियों ने सिर उठाया। भले ही राजशाही स्वतंत्रता के बाद कानूनी रूप से अस्तित्व
में नहीं रही, लेकिन सियासत में भ्रष्टाचार के चलते नए ढंग की सामंतशाही पनपी।
उससे मुकाबला साल दर साल कठिन होता जा रहा है। नए जमाने के तमाम राजनेता सामंती मनोवृति
को बढ़ावा देते नजर आते हैं। यह अपने तरह की बड़ी चुनौती है। चुनौती बाजार और तकनीक की
भी है। आधुनिकतम तकनीक के कारण पत्रकारिता को भी नए नवेले मीडिया अवतारों के साथ कदमताल
करना कांटों भरा ताज पहनना है। इसी तरह बाजार के दबाव भी अनंत हैं।
बड़े घरानों के हितों-स्वार्थों का संरक्षण
करना आज के दौर की पत्रकारिता का विद्रूप चेहरा है। पत्रकारिता परदे के पीछे है और
तमाम मीडिया घरानों के धंधे सामने हैं। धंधे चमकाने के लिए अखबार और चैनल मंच पर हैं।
बाकी सब कुछ नेपथ्य में है। इसके अलावा संपादक नाम की संस्था के दिनों दिन बारीक और
महीन होते जाने से पत्रकारिता की नई पीढ़ियों का नुकसान हो रहा है। अधिकतर पेशेवर रीढ़विहीन
हैं,
जो सत्ता प्रतिष्ठान को पोसते हैं। इसी कारण सियासी मानसिकता पत्रकारिता को बंधक
बनाकर या बांटकर राज करने की होती जा रही है। यही काम तो गोरी सरकार करती थी। अब हमारी
संस्थाएं कर रही हैं। पत्रकारिता नई तरह की चुनौतियों के घेरे में है। भारतीय लोकतंत्र
की सेहत के लिए यह शुभ संकेत नहीं है। (वरिष्ठ पत्रकार राजेश बादल ने यह टिप्पणी https://www.samachar4media.com/ के लिए लिखी है।)