मन्ना डे से एक लंबा आत्मीय संवाद
सिनेमा लेखन की दुनिया में अपनी एक अलहदा पहचान बनाने वाले फिल्म समीक्षक और विश्लेषक सुनील मिश्र अब हमारे बीच नहीं हैं। उन्हें श्रद्धांजलि स्वरूप यहाँ पढ़िए, हिन्दी समय डॉट कॉम पर पोस्ट किया गया उनका एक पुराना आलेख, जिसमें उन्होंने जाने-माने गायक मन्ना डे के साथ अपने इंटरव्यू को तफ़सील से लिखा है। मन्ना दा ने 2013 में आखिरी साँस ली थी।
'अरे बंगाली बाबू कलकत्ते जाओ,
रसगुल्ले-वसगुल्ले खाओ,
इधर क्या करते हो...
उनसे मिलना जैसे एक सदी से मिलना होता है।
भारतीय सिनेमा में उनकी सृजनात्मक उपस्थिति कालजयी है। उनके गाए गीतों में हमारे सुख-दुःख, प्रेम,
सरोकार, जीवन, विडंबनाएँ,
राग-विराग और अवसाद सब कुछ इतने मर्मस्पर्शी होते हैं कि जिनका असर लंबे
समय तक बना रहता है। देह से लेकर दुनिया तक इस पार से उस पार के दर्शन का अपनी सम्मोहक
आवाज में छह दशक से अनवरत बखान करने वाले ऐसे व्यक्तित्व के सामने होना एक बड़े सौभाग्य
का अवसर था। बात प्रख्यात पार्श्व गायक मन्ना डे की हो रही है। 1 मई 1919 को कोलकाता
में पूर्णचंद्र और महामाया डे के घर जन्मे मन्ना डे ने इस साल 95 वर्ष में प्रवेश किया
है। मन्ना डे सीधी रीढ़ के आदमी हैं इसीलिए आज भी बिना सहारे के चलते हैं। वे अपनी
पहचान और प्रतिष्ठा का कोई बेजा लाभ नहीं लेते, यही कारण है कि
हवाई अड्डे पर चेक-इन के समय इत्मीनान से लाइन में हो जाते हैं। उनके प्रति असीम आदर
रखने वाले स्वयं उन तक आकर उनकी सेवा करना चाहते हैं मगर वे दृढ़ विनम्रता से मना कर
देते हैं।
मुंबई की आपाधापी से दूर बरसों से बैंगलोर में शांति और सुकून से रह रहे दो बेटियों के पिता मन्ना डे अपनी उपलब्धियों और अपने साधनों से संतुष्ट हैं। बीसवीं सदी की इस विलक्षण जीवंत कृति से भोपाल में मिलना सचमुच एक सदी से मिलने जैसा ही रहा। मन-मस्तिष्क में घुमड़ रहे उनके तमाम गीतों की बेचैन कर देने वाली हलचल के बीच अपने सामने पितामह की तरह बैठे मन्ना दा बातचीत में एकदम निर्भीक, आत्मबली और नैतिक मूल्यों के सच्चे उपासक दिखाई दिए। उन्होंने समय और आधुनिकता से अपनी नाइत्तफाकी जाहिर की तो अपने जमाने की खास और दुर्लभ घटनाओं तथा लोगों को याद भी किया। उनकी बातचीत में महसूस होने वाली बेलागी आज के समय में बहुमूल्य लगती है क्योंकि दरअसल अब जमाना दूसरा है।
नई सदी
बहुत उम्मीद के साथ हमने सन 2000 को व्यतीत
किया था। नई सदी को लेकर सपने काफी थे। बीसवीं सदी बीती और इक्कीसवीं सदी आ गई, 2001 आया,
एक-एक साल आते गए और हम यहाँ तक आ पहुँचे। मुझे लगता है कि गिरावट की
तरफ जा रहे हैं, ऊँचाई से। हिंदुस्तान में क्या होने वाला है,
पता नहीं। लोग बोलते हैं, कि हिंदुस्तान बहुत तरक्की
कर रहा है, बढ़ रहा है, अंबानी कितने हजार
करोड़ के मालिक हैं, ये है, वह है,
ये सब सुनने से क्या होगा हमारे देश में नीचे की पीढ़ी के जो लोग हैं,
उनका कोई भविष्य नहीं है, ऐसा मुझे लगता है। उनके
लिए कोई सोचता नहीं है।
समाज और संस्कृति
समाज का हाल... मैं तो उम्र में बहुत आगे चला
गया हूँ। मुझसे यह कहना ठीक भी नहीं होगा कि मुझे ए पसंद नहीं है। आजकल के नौजवान लोग
जो कुछ कर रहे हैं, खासकर कि कल्चरल फील्ड में, मुझे बिल्कुल
पसंद नहीं है। उम्मीद करना ठीक है लेकिन जो लोग संस्कृति की रक्षा की जवाबदारी लेकर
बैठे हैं उनमें अपनी संस्कृति को लेकर समझ नजर नहीं आती। खासकर जो म्यूजिकल कल्चर है,
वह बिल्कुल खत्म हो गया है। बहुत डार्क लगता है, हमारा गाना-बजाना जो है, इज गोइंग फ्रॉम... एकदम नरक
में चला गया है। अभी मैंने एक विज्ञापन देखा टीवी पर, उसमें एक
लड़की चड्ढी पहन रही थी और लोग उसे क्या-क्या बोल रहे थे। देखिए, ये सब मुझे बहुत खराब लगता है। अब ये भी है कि टीवी देखे बगैर हम रहें भी कैसे
टीवी तो देखना ही पड़ता है, न्यूज सुनना ही पड़ता है,
इधर-उधर देखना ही पड़ता है, लेकिन हमारे बाल-बच्चे
और परिवार के लिए यह बहुत खतरनाक बात होती है।
इस सदी का सिनेमा
कॉमर्शियली बहुत सक्सेजफुल हो रहा है क्योंकि
नौजवान जितने हैं, आज की पीढ़ी के, वो सब इसको पसंद करते हैं,
इसलिए समय के अनुसार ठीक-ठाक हो रहा है। जो कुछ हो रहा है, ठीक है। कभी-कभार अच्छी पिक्चरें भी बन जाती हैं, अच्छा
लगता है, जैसे 'ब्लैक' हो, 'बागवान' हो, ऐसी-ऐसी कुछ पिक्चरें देखकर अच्छा लगता है लेकिन बात दरअसल यह है कि ये करने
के बाद, ये एक-दो पिक्चरें ऐसी बन रही हैं, जैसे 'लगे रहो मुन्ना भाई', अब
इसमें जिस ढँग से गांधी को फिल्माया गया है, बड़ा अजीब सा है
और इसमें एक लफंगा और उसके साथ के लोग किस ढँग से बोलते-बर्ताव करते हैं, यह सब हमारे बच्चे लोग जो निर्दोष हैं, वह जो सुनते हैं
वह अपना लेते हैं। ये सब अपनाना हो सकता है ठीक हो, मगर बाप-माँ
के साथ ऐसी बातें करेंगे तो कैसा लगेगा मुझको पसंद नहीं है ये सब चीज। ठीक है,
कॉमर्शियल सक्सेज है। कॉमर्शियल सक्सेज के लिए हमारी भारतीय संस्कृति
को क्यों नष्ट किया जा रहा है।
यही सब कारण है कि आज का सिनेमा और उसका संगीत
टेंपरेरी टाइप का होकर रह गया है। यह बिल्कुल सही है। आज के समय में सिनेमा में औरत
को बस नाचने और गाने भर के लिए रख लिया जाता है। हमारे जमाने में जो गाने होते थे, जिस ढँग
से सिचुएशंस बनाए जाते थे, कहाँ होता है अब वह सब उस ढँग से कोई
सोचता भी नहीं है और सोचना भी नहीं चाहिए क्योंकि ऐसे सोच आजकल के जमाने में बहुत गए-गुजरे
लगते हैं।
मेरे समय के सितारे
वह सारा का सारा समय ही जाता रहा। कोई साथ
का नहीं बचा, सब चला गया। अब देखिए गाने की फील्ड में सब चला गया - रफी चला
गया, मुकेश चला गया, किशोर चला गया,
हेमंत चला गया, तलत चला गया और बाकी क्या रहा कुछ
नहीं बचा। गाना जिस ढँग से बनता है, दो-चार लोग कुछ ऐसे हैं वह
बनाने की कोशिश कर रहे हैं लेकिन क्या कोशिश कर रहे हैं अब देखिए न, बोलना नहीं चाहिए लेकिन 'उमराव जान', उसका जो म्यूजिक है, जो खैयाम साहब ने दिया था,
क्या ब्यूटीफुल म्युजिक, एकदम हृदय को छू लेने
वाली बात थी उसमें। कुछ-कुछ गाने मैंने सुने, एकदम छू गए दिल
को। लेकिन जो 'उमराव जान' पिछले दिनों बनी,
उसका एक भी गाना दिल को छू न सका। 'शोले'
दोबारा बनी, अब हम क्या कहें, बिग बी के बहुत से चाहने वाले हैं दुनिया में, हम तो
एक कौड़ी के भी नहीं हैं उनके सामने, लेकिन मुझे यह लगता है कि
यह ठीक से जमा नहीं। उस 'शोले' में जिस
ढँग से पंचम ने म्यूजिक दिया था उस ढँग से कोई म्यूजिक नहीं दे सकता। उस तरह के कैरेक्टर
भी मिलना मुश्किल ही हैं आज। जिस ढँग से अमजद खाँ ने गब्बर सिंह का रोल किया था,
बिग बी ने उसके मुकाबले क्या किया। ऑफकोर्स ही इज ए ग्रेट आर्टिस्ट मगर
जो इंप्रेशन अमजद खाँ छोड़ के गए हैं, वो इंप्रेशन मेरे दिल में
एकदम स्थायी होकर रह गया। वह गाना जो जलाल पर फिल्माया गया था, हेलन के डांस के साथ, वह गाना कभी बन सकता है दोबारा
कभी नहीं बन सकता। जब पंचम ने बनाया था ये गाना, हम लोग ताज्जुब
कर रहे थे, कैसे उसने ये गाना गया होगा हम लोग सब मंझे हुए गाने
वाले थे, हम लोग सब सोच में पड़ गए, कैसे
गाया उसने ऐसी पिक्चर है जो हर दिल में अपनी ऐसी जगह बना चुकी है, जो अमिट है और वह जगह कोई नहीं ले सकता।
संगीत की विरासत सहेजकर रखने की बात
कोलकाता में इस तरह का काम हो रहा है, हालाँकि
यह कठिन है, आसान नहीं है। उन लोगों ने मुझे बताया कि हम आपके
संगीत को सहेजने का काम कर रहे हैं। मैंने उनको पूछा कि तुम किस तरह का प्रस्ताव बना
रहे हो, स्क्रिप्ट क्या है, मुझे बताओ।
वह सब मेरी कोलकाता यात्रा में तय होने वाला है। वे लोग एक पूरा आर्काइव ही बनाने वाले
हैं। मैंने जितने गाने गाए हैं उन सबको वे प्रिजर्व करके रखने वाले हैं। सब चीजें कंप्यूटर
के माध्यम से सुरक्षित रहेंगी और संगीत प्रेमियों को उनके चाहने पर उपलब्ध हो सकेंगी।
मैंने तो न जाने कितने गाने गाए हैं, मुझे याद नहीं हैं मगर कंप्यूटर
और इंटरनेट के माध्यम से वे लोग सब भेजने में सक्षम हैं।
बंग भूमि की मिठास
बँगाल की मिट्टी में मिठास है, वहाँ की
बोली-बानी में मिठास है। कितने ही कलाकार बँगाल की भूमि से आए और उन्होंने अपनी मिठास
से पूरे जगत के आस्वाद को सम्मोहित कर लिया। इसका कारण है इस जमीन के लोगों का संवेदनशील
होना। वहाँ के लोग सचमुच बड़े संवेदनशील होते हैं। वहाँ भी मारपीट है। जबरदस्त मारपीट
करते हैं लोग। वे एक क्लास के लोग हैं। वे वो तो करते ही हैं लेकिन आमतौर पर मैं बोलता
हूँ कि वहाँ के लोगों का जो दिमाग है वह अच्छी तरफ ही सोचता है। उनका सोचना,
दैनंदिन जीवन के आसपास ही होता है और अपनी जड़ों से उनका जुड़ाव बड़ा
भावनात्मक होता है।
फिल्में और रियलिटी
फिल्मों से रियलिटी नदारद है। आजकल रियलिटी
पर फिल्में ही नहीं बनतीं। आज का सिनेमा देखो, टीवी सीरियल में दिखाई देने
वाली औरतें और लड़कों के कपड़े देखो, इस तरह के कपड़े पहनकर कोई
रहता है अपने घर में इस तरह के कपड़े पहनकर घर में घूमते कैसे दिखाई देते हैं,
यह समझ में नहीं आता। मैंने एक बार कुछ कलाकारों से पूछा भी था,
इस तरह के कपड़े पहनकर क्यों रहते हो, तो उसके
जवाब में उन्होंने कहा था, कि इससे आकर्षण बढ़ता है। सांस्कृतिक
समृद्धि का प्रश्न ही बेमानी हो गया है। देयर इज नो कल्चर टुडे। नथिंग। मैं बैंगलोर
में रहता हूँ, देखता हूँ, शाम के वक्त आप
शहर में जाइए, देखिए वो नंगे नाच, शराब
वगैरह, यही सब हो रहा है। दिस इज कल्चर हम लोग बुजुर्ग जितने
हैं, सोचते हैं कि क्या दिन आ गए हैं हम लोग तो कुछ नहीं कर सकते
हैं इसमें। ये आज के आईटी छोकरे-छोकरी लोग तीस-तीस हजार रुपए महीने कमाते हैं,
आप जाकर देखिए जिस ढँग से वे एक-एक शर्ट खरीदते हैं पंद्रह सौ रुपयों
का, कमाल है...। एक शर्ट का पंद्रह सौ रुपए खर्च करते हैं वे
और बोलते हैं, हाँ मेरे पास पैसा है, क्यों
नहीं करूँ मैं खर्च वह वह सब कार्ड लेकर घूमते हैं। ये कार्ड, वह कार्ड, यही सब करते रहते हैं। हम लोग दूर से देखते
हैं। हमारे कुछ दोस्त लोग हैं, उनके बच्चे भी आईटी में हैं। वे
बोलते हैं, हम क्या करें। ऐसे बच्चों को कार्पोरेट हाउस ने सत्तर-सत्तर
लाख, एक-एक लाख रुपए महीने में नौकरी में रखा हुआ है। क्या किया
जा सकता है कुछ नहीं किया जा सकता लेकिन देखने से लगता है कि भई क्या दिन आ गया है
एक आदमी को एक लाख रुपए महीने का पगार। किसलिए क्या करते हो तुम भाई ऐसा हो गया,
जो हम दूर से देखते हैं और अपने आपमें बातें करते रहते हैं, कि भाई ये हमारे दिन नहीं हैं। ये समय ऐसा हो गया, इसीलिए
आहिस्ता-आहिस्ता हम लोग दूर होते जा रहे हैं।
मैं कभी भी दस प्रोग्राम आने से नहीं लेता
हूँ। मैं दस मर्तबा पूछता हूँ, जानकारी लेता हूँ और विचार करके हाँ करता हूँ।
जब मैं जान जाता हूँ कि अच्छे लोग हैं, अच्छे गीत सुनने वाले
हैं, तब हाँ करता हूँ और जाता हूँ।
विविध अनुभूतियों और अभिव्यक्तियों के गाने
ऐसा गुण, आप कह सकते हैं कि मुझे विरासत
में मिला अपने चाचाजी से। मेरे चाचाजी जो थे, वे ध्रुपद गाते
थे, ख्याल गाते थे, ठुमरी गाते थे,
गजलें गाते थे, फिर टप्पे गाते थे, बाँग्ला में बाऊल, भाटियाली सब, कीर्तन वगैरह भी। याने के एक तरह से पायनियर थे वे। बँगाल में उनकी पूजा होती
थी, के. सी. डे साहब की। उनका भतीजा हूँ मैं। और जिस ढँग से हम
लोग को सिखाया उन्होंने, बिल्कुल उसी लाइन पर गाना सीखा मैंने।
गाना, इस ढँग से तैयार करो, चाहे कुछ भी
दिया जाए तुमको गाने को, गा सको। इसीलिए सब कोई बोलते थे,
ये गाना है, तो मन्ना डे को बुलाओ। उसी से गवाओ।
मुझे अच्छा भी लगता है। गर्व है इस बात का कि कुछ-कुछ गाने सिर्फ मेरे लिए ही रखे गए
कि ये मन्ना डे ही गाएँगे।
सबसे अच्छी मित्र
मेरी वाइफ। शी इज वंडरफुल वूमेन। शी इज मलयाली।
माई वाइफ। बट शी इज एम. ए. इन इंगलिश लिट्रेचर फ्रॉम बांबे यूनिवर्सिटी। शी इज टू टीच।
और मैं यह कह सकता हूँ कि हमारी जिंदगी में जो अप्स एंड डाउंस हुए हैं न, उसके लिए
अगर वह मेरे पास, मेरे साइड में नहीं होती, तो मैं कभी का चला जाता। ऐसे दिन आए थे, जब मैं लडखड़ाने
लगा था, कैसे काम करूँगा बंबई में आकर, बंगाली हूँ। सब लोग बोलते थे, 'अरे बंगाली बाबू कलकत्ते
जाओ, रसगुल्ले-वसगुल्ले खाओ, इधर क्या करते
हो बहुत दुख होता था तब मैं सोचता था, कि किसी आश्रम में जाकर
रहूँगा, भजन गाया करूँगा। एक संगीत कार्यक्रम में सुलोचना से
पहली बार मुलाकात हुई और हम एक दूसरे के जीवन साथी बन गए।
सबसे यादगार फिल्म
ऐसी फिल्में मुझे बहुत पसंद हैं जो मन को भीतर
तक छू जाए। ऐसी फिल्म जिसे देखकर आप क्षण भर सोचें कि किस तरह बनी यह फिल्म, किस तरह
कलाकारों से इसमें काम कराया गया। गाने का पिक्चराइजेशन किस तरह किया गया, कितनी अच्छी धुन बनाई गई, हम लोग तो सिनेमा को इसी तरह
से लेते हैं। हम तो डेफिनेटली ऐसी पिक्चरें देखते हैं और पसंद करते हैं, जैसे 'परिणीता' आई थी पिछले साल,
मुझे अच्छी लगी। जैसे 'देवदास' जो बिमल राय ने बनाई थी दिलीप कुमार को लेकर, वह इमोर्टल
फिल्म थी। उसमें बर्मन साहब का म्यूजिक, दिलीप कुमार की एक्टिंग,
सुचित्रा सेन की एक्टिंग और अभी जो 'देवदास'
भंसाली साहब ने बनाया, वैसी लिख सकते हैं कभी शरद
चटर्जी ये बिल्कुल बकवास है। न जाने क्यों, वो पचास करोड़ में
पिक्चर बनी, और बोलने लगे, दिस इज ए मोस्ट
एक्सपेंसिव पिक्चर, सो व्हाट मुझे बिल्कुल पसंद नहीं,
अच्छा नहीं लगता ये सब। बिमल राय की पिक्चरें, शांताराम की पिक्चरें, यश चोपड़ा की कुछ पिक्चरें,
उनको देखकर लगता है कि कोई गंदगी नहीं है इसमें। अच्छा लगता है।
इस बात पर गुस्सा आता है
ये आज की पिक्चरों में जिस ढँग से काम कराते
हैं, और जो लोग ऊपर बैठे हैं, उनका जो एटीट्यूट है,
जिस ढँग से डायलॉग होता है, काय रे क्या करता है
तू, खायला है, चल रे - ये सब बेहद बुरी
बात है आने वाली पीढ़ी के लिए। वैरी बेड। सब कोई इसी तरह बात करने लगे हैं। ये कोई
मजाक है, हिंदुस्तान में अच्छी तरह से कोई बात भी नहीं कर सकता,
छी छी छी...। पिक्चर का अपने दर्शकों पर बड़ा गहरा प्रभाव पड़ता है।
पिक्चर कौन देखते हैं, ज्यादा हम थोड़े ही लाइन लगाकर खड़े होते
हैं सिनेमा हॉल में, जो लोग भीड़ लगाकर देखते हैं वे क्या सीखते
हैं जैसी देखते हैं वैसी ही माँग बढ़ती जाती है। दिन ब दिन खराब होता जाता है। जितना
खराब देखा, उससे भी खराब चाहिए और। ये मैं देखता हूँ,
ये मुन्ना भाई, इसमें संजय दत्त काम करता है और
वह बोमन ईरानी, एक कॉलेज का डीन, उनसे बात
कर रहे हैं, तू तू करके बात करता है ये संजय दत्त, मुन्ना भाई। मुझे लगता है कैसे ये लोग, सोचते कैसे हैं
डीन क्यों बर्दाश्त करेगा कि एक व्यक्ति को जो नॉट क्वालीफाइड है, वह यह सब करे, जो कि बिल्कुल गलत है। कमाल की बात है,
ये दूध वाला, पान वाला ये पसंद करते हैं। उनको
यही चाहिए।
गायकी , ईश्वर की साधना
सुर जब लगाता हूँ सुबह बैठकर, एकदम लीन
हो जाता हूँ। कुछ देर तक गा लिया, एक घंटा गा लिया, अच्छा लगता है। तसल्ली हो जाती है दिल में। दिन में एक अच्छा काम तो किया थोड़ा
सा, उनको याद करके। मैं अंतःकरण से बहुत शुद्ध इंसान हूँ। आप
यह कह नहीं सकते, मुझ पर कोई ऊंगली उठाकर यह नहीं कह सकता,
ये आदमी ऐसा है, वैसा है या इसने ये किया,
वह किया। मैं पसंद ही नहीं करता हूँ। अब इतने सालों से मैं काम कर रहा
हूँ 'आई एम ए वन वूमेन मैन, व्ही हेप्पी
मेरिड फॉर फिफ्टी फोर इयर्स.....फिफ्टी फोर इयर्स।' मैं दूसरी
कोई औरत की तरफ देखता ही नहीं, सिवाय मेरी वाइफ। नेवर।
सच्चाई की परिभाषा
ऑनेस्टी। जो अपने भीतर और बाहर से ईमानदार
हैं उनके लिए सच्चाई कोई बड़ी चीज नहीं है। सच्चाई तो यही है न, आप जो
सच सोचते हैं, वही बोलते भी हैं। आपकी ईमानदारी, आपकी बातों में भी झलकनी चाहिए।
दिल का हाल
मेरे दिल का हाल... मैं कैसा हूँ, मैं क्या
हूँ, मैं क्या सोचता हूँ, किसी में कोई
परदेदारी नहीं नहीं है। सब काँच की तरह साफ और पारदर्शी है। मैं क्या करता हूँ,
सबको पता है। मेरा कुछ भी छुपा हुआ नहीं है जो किसी को न पता हो। किसी
को मेरे बारे में विपरीत कुछ सोचने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी। मैं बहुत-बहुत ईमानदार
हूँ।
हास्य गीत
कॉमेडी सांग में आहा... ओहो बोलने से कॉमेडी
नहीं होती है। कॉमेडी सांग में गाने के जरिए कॉमेडी पैदा करनी चाहिए। जैसे, 'एक चतुर
नार करके सिंगार', जो हमको गाना पड़ा था, बिलकुल अलग ढँग से क्योंकि महमूद उसमें साउथ इंडियन का काम कर रहा था। यह करना
मेरे लिए काफी कठिन था।
महमूद
महमूद एक ब्रिलिएंट कलाकार थे। एक जमाना था, महमूद
ने यदि कोई फिल्म साइन की तो बड़े-बड़े लोग उस फिल्म में काम करने से पीछे हट जाते
थे। वे नहीं साइन करते थे, फिर। वे कहते थे, सब सीन वह ही चुराकर ले जाते हैं, हम उनके साथ काम नहीं
करेंगे। मेरे साथ उनका बहुत अच्छा रिश्ता था। वे हमेशा आते थे मेरे पास, मेरे घर। मुझे याद है, मैं एक रिकॉर्डिंग में एक घड़ी
पहना था, रेडो वाच। शुरू-शुरू में ये घड़ी चली थी। मेरा एक दोस्त
लंदन से लाया था। उसके हाथ में थी। उसका नाम पिसी बुलाता था मैं। मैंने उससे कहा,
पिसी बहुत अच्छी घड़ी पहन रखी है तुमने तो उसने कहा, दादा ये आप ले लीजिए। मैंने कहा, मैं कैसे लूँ उसने कहा-
आपको अच्छा लगता है तो ले लीजिए। मैंने कहा, ठीक है, एक शर्त पर ले सकता हूँ, तुम इसका पैसा जितना है,
वह ले लो। वह हमारे घर ही ठहरते थे। मैंने कहा उनसे, तुम अभी इसे पहने रहो, फिर जाते वक्त तुम इसका पैसा लेकर
जाना और घड़ी मुझे दे जाना। ऐसा ही हुआ। जब वह गया तो मैंने उस घड़ी की कीमत चुकाई
और अपने लिए ले ली। सब कोई देखते थे उस घड़ी को, जब मैं पहनता
था। कई बार मैं डर के मारे उसको पहनता नहीं था। एक दिन रिकॉर्डिंग में पहनकर गया। महमूद
का गाना था, उसका प्ले बैक दे रहा था मैं। महमूद बोला,
दादा, लास्ट टाइम, आपके छोटे
भाई महमूद के लिए जो आपने कुछ दिया था, याद आया आपको मैंने कहा,
क्या दिया था आपको बोला महमूद, याद कीजिए,
नहीं दिया तो अब दे दीजिए। मैंने बोला, क्या चाहिए
तो वो बोला, घड़ी चाहिए। लेकिन मैंने वह घड़ी नहीं दी,
बड़ी मुश्किल से बचा पाया।
मुझे महमूद बहुत पसंद था। उसकी बहुत-सी फिल्में
मैंने देखीं। पड़ोस में तो, हद कर दी उसने। बाप रे! वो खुद और हमारे किशोर,
ओ हो हो माई गॉड, क्या काम किया दोनों ने मिलकर।
और वह गाना सबसे पापुलर, 'एक चतुर नार करके सिंगार।' तो हुआ, लेकिन वो गाना जो महमूद के लिए गाया था,
वांगा आओ आओ सुरीली सजनिया, वह गाना था टेरीफिक,
वह गाना आप सुनकर देखो। गाना सुनकर लगेगा कि हाँ, ये गाना मन्ना दा ही गा सकते हैं, और कोई नहीं गा सकता।
महमूद हर गाने की रिकॉर्डिंग में आकर बैठ जाते थे, एक परचा लेकर,
कागज लेकर, उसमें, अरे हाँ
आँ आँ बोला तो उस ढँग से लिख लेते थे। कहते थे, इस ढँग से हमें
भी परदे पर निभाना है। कमाल की बात है, बहुत कम आर्टिस्ट ऐसे
करते हैं। राज साहब भी ऐसे ही थे। शुरू से आखिर तक हर गाने की रेकॉर्डिंग में मौजूद
रहते थे। खुद गाते थे, म्युजिक भी खुद बनाते थे, क्या नहीं करते थे राज साहब! वाह....वाह।
सचिन देव बर्मन
बहुत छोटी उम्र से देखा था उनको मैंने। हमारे
चाचाजी के.सी. डे साहब से सीखने आते थे वह। वह आदमी बिल्कुल चायना मैंन जैसा दिखता
था। ये लंबा आदमी, सफेद कपड़े पहनकर चला आ रहा है। धोती-कुरता पहने हुए। जब वह सीखते
थे, मैं उनके बाजू में हाफ पैंट पहनकर बैठता था। मैं उस पूरे
समय उनकी तरफ देखता ही रहता था। वह कैसे गाते थे, नाक से,
'अरे धीरे से जाना बगियन में....।' मैं सोचता था,
ये अजब तरीके से गाते हैं, कोई तो आ रे बोलता है
मगर ये आँ रे बोलते हैं। मैं उनके गाने कॉलेज में गाया करता था, तो मेरे चाचा' बोलते थे, ठीक है,
तुम सचिन के गाने पसंद करते हो, गाओ लेकिन सचिन
जो नाक से गाता है, उसकी नाक की नकल करते हो तुम, तो नाक से मत गाओ। लेकिन ये मानना पड़ेगा कि सचिन दा में एक बात थी,
जो किसी आर्टिस्ट में नहीं है, वह गाने को जिस
ढँग से सजाते थे न, बहुत बेहतरीन।
अविस्मरणीय फिल्मकार
ऋषि दा के साथ बहुत काम किया। कमाल के अनुभव
रहे। वंडरफुल। वंडरफुल सेंस ऑफ ह्यूमर। ऋषि दा बैठकर काम कर रहे, मैं पहुँचा,
एकदम बोले - अरे मन्ना दा, क्या मुसीबत आयी...!
मैंने पूछा, मुसीबत क्यों, किस बात की इस
पर वे बोले, आप आ गए। अब काम तो नहीं होगा। आपके साथ बैठकर बात
करनी पड़ेगी। बिमल राय के साथ बहुत काम किया। उनकी फिल्में बहुत खूबसूरत होती थीं।
सच कहूँ तो उनकी फिल्मों से सुगंध आती थी। उनके निर्देशन में एक तरह की खुशबू महसूस
होती थी। वे अपने किसी भी काम को सहजता से नहीं लेते थे। एक बार मुझे याद है कि मैं
उनके स्टूडियो के बाहर से निकल रहा था, बिमल दा अंदर आ रहे थे,
तो बोले, अरे मन्ना कैसे हो वे गाड़ी से निकल रहे
थे। तभी हमने देखा सूर्य पेड़ के पीछे से अस्त हो रहा है, वो
एकदम रुके। मुख्यतः तो वे कैमरामैन भी थे। उन्होंने तुरंत अंदर अपने आदमी से कहा,
कैमरा लेकर आओ और उन्होंने फिर वो दृश्य शूट कर लिया। मैंने कहा,
बिमल दा, ये क्या हो रहा है वे बोले, ये शॉट मैं रखना चाहता हूँ। ये कभी काम आएगा। दिस इज ए काइंड ऑफ डायरेक्टर।
एकदम नेचुरल। उनकी तो सारी की सारी फिल्में मुझे पसंद हैं, 'दो
बीघा जमीन', क्या फिल्म बनाई थी (मैं उनको याद दिलाता हूँ इस
वक्त वह गाना - 'अपनी कहानी छोड़ जा, कुछ
तो निशानी छोड़ जा, कौन कहे इस ओर, तू फिर
आए न आए')।
जीवन दर्शन के गीत
अच्छा लगता है ऐसे गाने गाना, जैसे 'दो बीघा जमीन' का गीत, जो आपने
अभी याद दिलाया। ऐसे शब्द जिनमें गहराई हो, उनको गाने में भीतर
से वह असर, वह प्रभाव लाना कठिन होता है, लेकिन वह भी निभाने में कठिनाई नहीं आई। मैंने जब-जब ऐसा किया और लोगों को
पसंद आया तो मुझे सचमुच बहुत खुशी होती है। आजकल तो जो गीत लिखे जा रहे हैं,
बिल्कुल बकवास हैं। बँगाल में एक बैंड इंट्रोड्यूज किया गया है,
उसमें आठ-दस छोकरे गिटार लेकर कूदते हैं, फिर धूमधाम,
क्या है ये सब, समझ नहीं आता।
मेरे अपने अनुभव साठ साल के लंबे समय के रहे
हैं। इन साठ सालों पर मैं एक किताब लिखूं तो मैं लिख सकता हूँ सारे संगीत निर्देशकों
पर। उनकी खासियत के बारे में, उनकी टिपीकल कैरेक्टराइजेशन और थिंकिंग,
गाना बनाने का तरीका, जिस ढँग से बनते थे गाने,
जिस ढँग से रिकॉर्डिंग होती थी, क्या बात है!
एक बार की घटना बताऊँ, 'बसंत
बहार' फिल्म की बात है। उसमें एक गाना था, केतकी गुलाब जूही चंपक बन फूलें। तो उस समय शंकर ने टेलीफोन किया, आइए मन्ना बाबू गाना तैयार है। मैं गया, तो वे बोले कसकर
बाँधकर तैयार हो जाइए। मैंने बोला, क्या बात है, तो शंकर बोले, दादा प्रतियोगिता का गाना है। मैंने कहा,
अच्छी बात है कौन रफी मियाँ गाएगा शंकर बोले, नहीं,
रफी मियाँ नहीं, ये भीमसेन जोशी गाएँगे। मैं यह
सुनकर बैठ गया वहाँ पर। मैंने कहा, भीमसेन जोशी गाएँगे,
प्रतियोगिता कर रहे हो मैं तुरंत अपने घर लौट आया और अपनी बीवी को बोला,
चलो पंद्रह दिन बाहर चले जाते हैं। वह बोली, क्यों
तो मैंने बताया कि वह लोग भीमसेन जोशी के साथ प्रतियोगिता कर गाना गवाना चाहते हैं।
हम लोग बाहर जाते हैं, पुणे में जाकर रहेंगे, फिर जब गाने का रिकॉर्डिंग हो जाएगा तब जाकर वापस आएँगे। मेरी वाइफ ने मुझे
समझाया। दरअसल मैं इसलिए डर रहा था कि मेरी आवाज जीरो पर थी जो अपने स्पर्धी को हराता
है। अब मेरी हिम्मत कैसे हो, इतने बड़े गायक को हराने की मैं
बहुत परेशान हो गया था। ये भी अजीब बात है। मैं गाना गाकर जोशी को हरा दूँ,
ये कोई आसान बात है मैं अपनी हार मानता हूँ, मैं
यह नहीं कर सकता। पत्नी ने मुझसे कहा, क्यों नहीं कर सकते,
ये आपको करना पड़ेगा। तो फिर मैं दोबारा शंकर के पास गया और उनसे कहा,
शंकरजी, मैंने कहा, मुझे
थोड़ा समय दीजिए, मैं रियाज करके अपने आपको थोड़ा तैयार कर लूँ,
फिर मिलता हूँ। शंकर बोले, हाँ ठीक है,
दादा, मैं बोलता हूँ निर्देशक को। वह भारत भूषण
के भाई का पिक्चर था। उन्होंने भी कहा, ठीक है, पंद्रह-बीस दिन के बाद हम रिकॉर्डिंग करेंगे।
फिर खूब तैयारी की, तानबाजी
की। तब मेरी आवाज भी काफी असरदार थी लेकिन मैं शास्त्रीय संगीत के बारे में कुछ भी
जानता नहीं था। वह पंद्रह दिन मैंने सुबह उठकर जो क्लॉसिकल रियाज किया न, उससे मुझे बहुत बल मिल गया। गाना रिकॉर्ड हो गया। गाना होने के बाद भीमसेन
जोशी ने कहा, मन्नाजी, आप तो बहुत अच्छा
क्लॉसिकल गाते हैं! आप क्लॉसिकल प्रोग्राम क्यों नहीं करते मैंने उनसे कहा,
शर्मिंदा न कीजिए मुझे, आप लोग के होते हुए मैं
क्या खाक गाऊँगा। वे बोले, नहीं, नहीं आप
गा सकते हैं। आप दिल में तय कर लें कि क्लॉसिकल गाएँगे तो आप बहुत अच्छा गाएँगे। उनका
यह कांप्लीमेंट मुझे बहुत अच्छा लगा।
राजकपूर के साथ
राजकपूर की फिल्मों में जो मुकेश से गाया नहीं
जाता था,
वह मैं गाता था। 'दिल का हाल सुने दिल वाला',
आप सोच सकते हो, मुकेश गा सकता था नहीं गा सकता।
'प्यार हुआ, इकरार हुआ' गा सकता था वह, नहीं गा सकता था। 'ऐ भाई जरा देख के चलो', नहीं गा सकते थे मुकेश। 'ये रात भीगी-भीगी'.... वह आवाज थ्रो करना, नहीं होता है। उसकी आवाज में वह थ्रो था ही नहीं। 'आ
जा सनम मधुर चाँदनी में हम', कौन गाएगा नहीं गा सकते। पहली मर्तबा
जब मैंने बूट पॉलिश में गाया था। 'रात गई फिर दिन आता है।'
एक गाना है। सरस्वती कुमार दीपक ने लिखा था वह गाना। तो राज साहब बोले,
देखिए मन्नाजी, 'वह जो रात गई ई ई, गई ई ई ई फिर सुबह....' इस ढँग से गाना है। मैंने उसको
रात गई ई ई करके खींचा था, उसको फेड आउट जिस ढँग से किया था,
फिर सुबह नई गाया था, राज साहब ने उसके बाद आकर
मुझे चूम लिया था। कहने लगे, मैं बहुत दिन से ढूँढ रहा था,
ऐसे कोई गाने वाले को, जो, हम जो चीज चाहते हैं, वह दे सके। आप हमारी हर पिक्चर
में गाएँगे।
मैं बेहद खुश हुआ। मैंने आकर अपनी पत्नी को
बताया कि राज साहब ने मुझे चूम लिया। आपको मालूम नहीं, मैं ये
कैसे बताऊँ, एक अकल्पनीय चीज हो गई थी। 'ये रात भीगी-भीगी', गाने की रिकॉर्डिंग चल रही थी। शंकर
मुझको और लता को रिहर्सल करा रहे थे। हम लोग दो-तीन दिन रिहर्सल करके रिकॉर्डिंग स्टूडियो,
फेमस पहुँचे में। मीनू रिकॉर्डिस्ट थी। पिक्चर के निर्माता मिस्टर चेट्टियार
फ्रॉम मद्रास थे। तो रिहर्सल करके हम लोग तैयार हो गए। ग्यारह-साढ़े ग्यारह बजे हम
लोग तैयार हो गए। रेडी फॉर रिकॉर्डिंग। हम लोग रूम के इंतजार में थे। मिस्टर चेट्टियार
मद्रास से सीधे रिकॉर्डिंग स्टूडियो में आने वाले थे। उन्होंने आते ही पूछा,
मुकेश किधर है सब लोग एकदम चुप हो गए तब शंकरजी बोले, मुकेश ये गाना नहीं गा रहे, मन्नाजी गा रहे हैं। हू इज
मन्नाजी, चेट्टियार साहब ने पूछा। शंकर ने बताया, वह बैठे हैं, लता के पास। वे बोले, 'नहीं नहीं, राज्स प्लेबैक, व्ही
कांट टेक बाय एनीबडी एल्स, इट हैज टू बी मुकेश।' कैंसिल कर दीजिए आप रिकॉर्डिंग। हम लोग सब सुन रहे थे। इतने क्रूर आदमी थे,
हमारे सामने बोले, कैंसिल कर दो। मुकेश से देख
लो, फिर मैं दोबारा आ जाऊँगा। तब शंकर ने उनसे कहा, देखिए, गाना जिस ढँग से मैंने बनाया, ये मन्नाजी और लता ही गा सकते हैं, मुकेश के बस की चीज
नहीं है। चेट्टियार बोले, 'नहीं...नहीं....डू समथिंग एबाउट....आई
कांट एक्सेप्टेड एनीबडी एल्स इज व्हाइस......बट मुकेश इज फॉर राजकपूर। इस पर हमारे
शंकर तो बहुत बिगड़ गए। उन्होंने कहा, इस पिक्चर में मैं म्यूजिक
दूँगा ही नहीं। मुझसे कहा, चलो भाई हम चलते हैं। इतने में राज
साहब आ गए। कहने लगे, क्या है भाई इतना टेंशन क्यों है यहाँ राज
साहब तो बहुत उस्ताद आदमी थे। उन्होंने कहा, देखिए सेठ जी,
ये गाना जो है न, मन्नाजी को सिखाया गया,
उन्होंने रिहर्सल किया, गाने की रिकॉर्डिंग के
लिए इधर आ गए और वे गाने के लिए तैयार हैं। उन्होंने कहा कि इस गाने का रिहर्सल इन्होंने
किया है, यदि आप नहीं लेना चाहते तो ये गाना बदलना पड़ेगा।
इस पर चेट्टियार कहने लगे, ठीक है,
शैलेंद्र से बोलो, गाना दूसरा लिखे। इस पर राज
साहब बोले, क्यों गाना जिस ढँग से हो रहा था, बहुत अच्छा लग रहा है, आप सुनिए। एक मिनट सुन लीजिए,
रिकॉर्डिंग भी कीजिए, अच्छा नहीं लगा तो हम ये
गाना फेंक देंगे और दूसरा लेंगे। तब जाकर राजी हुए वह। वहाँ पर लता बड़ी नाराज,
मैं शर्मिंदा। वह बोलीं, आपके बारे में इस ढँग
से बात की गई, मुझे बेहद खराब लग रहा है। लेकिन आज आपको ऐसा गाना
पड़ेगा ताकि इनको नानी याद आ जाए। सो हम लोगों ने पहला रिहर्सल किया और दूसरे रिहर्सल
में टेक। पहला टेक हुआ तो चेट्टियार साहब रिकॉर्डिंग से अंदर आए जहाँ हम गा रहे थे।
मेरे पास आकर कहने लगे, आप तो बहुत अच्छा गाते हैं! राज साहब
ने कहा, बहुत अच्छा गाया आपने मन्ना बाबू, बहुत अच्छा।
राज साहब मुझे मन्ना बाबू ही कहते थे हमेशा।
उनकी अपने पिता पृथ्वीराज कपूर से एकदम दोस्ती के रिश्ते थे। वे अपने पिता के साथ सदैव
रहते थे कलकत्ते में। पिता को पकड़कर ही चलते थे। उन दिनों पृथ्वीराज कपूर कलकत्ता
में मोटर बाइक से चला करते थे। क्या आदमी था पृथ्वीराज कपूर, क्या लंबे,
खूबसूरत, ऐसा लगता था कोई रोमन आदमी है। बहुत आकर्षण।
मुझसे बोलते थे, मन्ना... गाना गाओ... गाना गाओ लेकिन चचा को
ध्यान में रखकर गाओ। चाचा की आवाज का तो जवाब ही नहीं था... 'बाबा आआ... मन की आँखें खोल...।' वह गाने का तरीका ही
कुछ और होता था। 'तेरी गठरी में लागा चोर', मुसाफिर जाग जरा, 'जाओ जाओ मेरे साधु रहो गुरु के साथ...'
वाह क्या गाते थे वह। 'पनघट पे कन्हैया आता है,
आकर धूम मचाता है', ये भी एक था।
प्राण
प्राण साहब के लिए मैंने कई गीत गाए हैं। इनमें
विशेष रूप से दो गीतों का जिक्र सदैव होता है, एक 'उपकार' फिल्म का 'कस्में वादे प्यार
वफा सब बातें हैं बातों का क्या' और 'जंजीर'
का यारी है ईमान मेरा यार मेरी जिंदगी।' मेरी और
उनकी पहली मुलाकात जब हुई तो उन्हीं के लिए एक गीत की रिकॉर्डिंग थी। वे मुझसे कहने
लगे, मन्नाजी, ये मैं पहली मर्तबा गाना
गा रहा हूँ। आप मेरे लिए गा रहे हैं। ऐसा कुछ न करना कि मैं मुश्किल में पड़ जाऊँ।
मैं चूँकि गाने में बहुत मसाले डालता था, इसलिए वे मुझसे पहले
ही ऐसा कह रहे थे। डरते थे सब, क्या मसाला डाल दिया, करना मुश्किल हो जाता है। सबके सामने बेइज्जती का खतरा है। प्राण एक अच्छे
इनसान और मित्र थे। कभी-कभार मैं टेलीफोन करता था, तो बहुत अच्छी
तरह से बात करते थे।
मोहम्मद रफी के साथ पतंगबाजी
एक रोचक बात सुनाता हूँ। हम बांद्रे में रहते
थे। करीब बारह साल रहा उस फ्लैट पर। मैंने वह फ्लैट खरीदा था। चार बेडरूम का फ्लैट।
मैं, मेरी बीवी और मेरे दो बच्चे उधर रहते थे। वहीं बीच में एक पार्क था। पार्क
के उस तरफ रफी मियाँ रहते थे। अपनी छत पर रफी, जब-जब उनकी रिकॉर्डिंग
नहीं होती थी, पतंग उड़ाया करते थे। मैंने रफी को जब पतंग उड़ाते
देखा तो मैं भी माँजा खरीदकर लाया, पतंग खरीदकर लाया और उड़ाने
लगा। फिर जब-जब रफी पतंग उड़ाता, मैं काट दिया करता उसकी पतंग।
एक मर्तबा रफी और मैं, हम दोनों मिले रिकॉर्डिंग स्टूडियो में
एक साथ। वे बोले, दादा, एक बात तो सुनो,
आप कोई मैजिक जानते हैं क्या आप हमारी हर पतंग काट देते हैं। कैसे काट
देते हैं! इस पर मैंने उनसे कहा, तुमको एक बात बताऊँ रफी मियाँ,
तुम पतंग उड़ाना नहीं जानते हो। वे बोले, मैं पतंग
उड़ाना नहीं जानता मैं बोला, नहीं। मैं तो पतंग उड़ाता ही हूँ।
दिलीप कुमार भी एक बार बोले, अच्छा आप पतंग बहुत अच्छी उड़ाते
हैं! तो फिर हो जाए एक मर्तबा। ऐसे ही एक बार जॉनी वाकर ने बोला था, हो जाए एक मर्तबा। हॉकी-फुटबाल खेलता था मैं, क्रिकेट
भी। देखने में भी मेरी ऐसी ही दिलचस्पी है। मैं बॉक्सिंग लड़ता था। मोहम्मद अली का
मैं बड़ा फैन हूँ।
फिल्मों में केवल गाना ही
फिल्मों में तो केवल गाना ही गाया, और कोई
काम नहीं किया। एक बार नाना पाटेकर ने जरूर जिद की थी मगर मैं तैयार ही नहीं हुआ। वह
प्रहार पिक्चर बना रहा था। उसमें मेरा एक गाना है, - 'मेरी मुट्ठी
में है क्या' उस गाने को एक प्रोफेसर का गाना था। तो नाना पाटेकर
बोला, दादा, आप मेरी मान लीजिए। मैंने पूछा,
क्यों क्या हुआ भाई वह बोला, दादा ये प्रोफेसर
का रोल आप कीजिए। मैंने मना किया, नहीं भाई, हम क्या करेंगे प्रोफेसर का रोल वह बोला, दादा,
ये गाना आपने जिस ढँग से गाया, मैं जब-जब सुनता
हूँ, लगता है कि ये मन्ना दा पर फिल्माया जाना चाहिए। मैंने कह
दिया, नहीं, नहीं लेकिन वह सुनते ही नहीं
थे। फिर मैंने लक्ष्मी (म्यूजिक डायरेक्टर था) को बुलाकर कहा, भाई ये सब गड़बड़ मत करो। फिल्मों में काम हम नहीं कर सकते। मुझे बिल्कुल पसंद
नहीं है। तब वह माना।
बचपन की डाँट - फटकार
बचपन में बहुत गलतियाँ और शरारत करता था। मारामारी
में सबसे आगे, एक नंबर का था मैं। किसी ने कुछ बोला, एक
झापड़ मार दिया मैंने। इस तरह का व्यक्तित्व रहा मेरा लेकिन मैं मेहनत भी बहुत करता
था। एक्सरसाइज करता था, कुश्ती लड़ता था, बहुत कुछ किया था। थोड़ा गुस्सैल भी था। इसीलिए कोई ऐसी-वैसी बात करे या गलत
बात करे तो एक लगा दिया करता था। मेरे कई अच्छे मित्र रहे हैं। अनेक वकील, इंजीनियर सब मेरे दोस्त रहे हैं। मगर मैं गाने में चला आया।
माँ - पिता
माँ... मैं कभी मंदिर में जाता नहीं हूँ। कोई
पूजा-वूजा नहीं करता हूँ। मेरी माँ हमेशा मुझसे कहती थीं, कि जिंदगी
में ऐसा कुछ करना ही नहीं, ताकि कोई आदमी तुम्हारे ऊपर उँगली
उठा सके। ऐसा कुछ सोचना भी नहीं। मेरे पिता एक ग्रेट फुटबॉलर और साइकिलिस्ट थे। मुझसे
कहते थे कि एक पूरा दिन बीतने के बात दस मिनट रात को गहराई और गंभीरता से दस मिनट इस
बात पर सोचो कि आज दिन भर क्या हुआ, क्या तुमने किया,
क्या तुमसे गलती हुई, जाने-अनजाने किसका मन दुखाया,
अपनी ऐसी गलतियों का प्रायश्चित करो और उन्हें न दोहराने की प्रतिज्ञा
करो। हो सकता है निष्पक्षता से आकलन करना कठिन हो मगर सोचना कि हमारा कौन सा व्यवहार
लोगों को अच्छा लगा या नहीं लगा मैंने हमेशा इस सीख को अपनाया, इससे मेरा संतुलन अच्छा हो गया। मेरे पिता देवता की तरह थे मेरे लिए। उनके
सिखाए जीवन मूल्यों और अनुशासन का बड़ा योगदान है मेरे जीवन में। इससे मेरे जीवन में
धीरज आया, मोहमाया के प्रति उस तरह का आकर्षण नहीं बना जैसा कि
आज तमाम दूसरे लोगों में दिखाई पड़ता है। आज गाने वाले तमाम कलाकार कितना पैसा माँगते
हैं, लाखों-करोड़ों रुपया। क्या करेंगे इतना। आदमी को जरूरत ही
कितने की होती है आखिर जीने के लिए समय के साथ जिन कलाकारों का स्वर घिस गया है,
वे भी माया-मोह से उबर नहीं पाते। भगवान की मुझ पर कृपा है, कि मैं इस तरह मोहमाया के पीछे भागने से बचता हूँ। अपने परिवार के साथ मेरी
सुकून और शांति से भरी जिंदगी है, उसी में बहुत खुश हूँ।