जिंदगी से भी ज्यादा जरूरी है आस्था और वोट!
- श्याम माथुर -
श्मशानों के बाहर अपने परिजनों के अंतिम संस्कार का इंतजार कर रहे लोग बेबसी के आंसू बहाते रहे। ऑक्सीजन नहीं मिलने पर बीमार लोग दम तोड़ते रहे, सैकड़ों की संख्या में मरीज ऑक्सीजन और वेंटीलेटर का इंतजार करते रहे, और दूसरी तरफ कुंभ मेले में शामिल हजारों श्रद्धालु गंगा के पावन पानी में अपने पाप धोते रहे। कोरोना की दूसरी लहर की अनदेखी राजस्थान समेत उन राज्यों में भी की गई, जहां विधानसभा चुनाव या उपचुनाव हो रहे हैं। तमाम राजनीतिक दलों ने अपनी पूरी ताकत चुनावी रैलियों में झोंक दी और मौत और मायूसी से जुड़ी घटनाओं को पूरी तरह दरकिनार कर दिया गया।
जिंदगी से भी ज्यादा जरूरी है ईश्वर में आस्था
और जनप्रतिनिधि चुनने के लिए वोट!
जी हां, पिछले दिनों जिस
किसी ने हमारे देश की तस्वीर पर नजर डाली, तो उसे यही मंजर नजर आया
होगा। एक तरफ कोरोना वायरस से संक्रमित होने वाले लोगों की संख्या बढ़कर प्रतिदिन दो
लाख के पार पहुंच गई, दूसरी तरफ कुंभ मेले में शामिल हजारों श्रद्धालु गंगा के पावन
पानी में अपने पाप धोते रहे और जिन राज्यों में विधानसभा चुनाव हो रहे हैं, वहां राजनेताओं
की रैलियों में सैकड़ों-हजारों लोगों का हुजूम अपने पसंदीदा नेता और पार्टी के लिए जयकारे
करता रहा।
मेरा भारत महान!
क्या हुआ जो श्मशानों के बाहर अपने परिजनों
के अंतिम संस्कार का इंतजार कर रहे लोग बेबसी के आंसू बहाते रहे। क्या हुआ जो ऑक्सीजन
नहीं मिलने पर बीमार लोग दम तोड़ते रहे। सैकड़ों की संख्या में मरीज ऑक्सीजन और वेंटीलेटर
का इंतजार करते रहे। इससे भी कोई फर्क नहीं पड़ता कि देश के कई राज्यों में कोविड वैक्सीन
का स्टॉक ही खत्म हो गया। बच्चे, बड़े, बूढ़े, औरतें सब कोरोना
की गिरफ्त में आते रहे और मजदूर तबका एक बार फिर सड़कों पर आ गया। रोजी-रोटी के लाले
पड़ने लगे। लोग घर छोड़कर पलायन करने लगे। किसी सामाजिक और धार्मिक समारोह में 50 से
ज्यादा लोगों के इकट्ठा होने पर पाबंदी लगा दी गई और अंतिम संस्कार में सिर्फ 20 लोगों
को शामिल होने की इजाजत दी गई।
किसी ने यह नहीं पूछा कि जब अंतिम संस्कार
में सिर्फ 20 लोगों को शामिल होने की अनुमति है, तो चुनावी रैलियों
में हजारों लोग कैसे जुटाए जा सकते हैं। किसी ने यह सवाल नहीं किया कि जब बोर्ड की
परीक्षाएं टाली जा सकती हैं, तो कोरोना लहर की दूसरी
लहर के बीच लाखों लोगों को कुंभ में जुटने की इजाजत कैसे दी जा सकती है। वह भी उस स्थिति
में जब सारे विशेषज्ञ कह रहे हैं कि कोरोना की दूसरी लहर पहले से ज्यादा खतरनाक है।
संतों के अखाड़े कहीं नाराज नहीं हो जाएं, इस डर से सरकार ने कुंभ
मेले को रोकने का कोई प्रयास नहीं किया। आखिरकार जब कुंभ मेले के बीच निर्वाणी अखाड़े
के महामंडलेश्वर कपिल देव की कोरोना संक्रमण से मौत हो गई, तो साधु-संतों
की चिंता बढ़ गई। कोरोना के बढ़ते मामलों को देखते हुए अखाड़ा परिषद के दूसरे बड़े निरंजनी
अखाड़े ने 15 दिन पहले ऐलान किया कि उनके लिए कुंभ मेला खत्म हो चुका है। लेकिन इस दौरान
उत्तराखंड के मुख्यमंत्री तीरथसिंह रावत गंगा नदी के प्रति अपनी आस्था का इजहार करते
हुए कहते रहे कि ‘मां गंगा के प्रवाह और आशीर्वाद से कोरोना का संक्रमण दूर ही
रहेगा। मां गंगा इसे फैलने नहीं देंगी। ईश्वर में आस्था वायरस को खत्म कर देगी। मुझे
इसका पूरा भरोसा है।’ जाहिर है कि कुंभ में लोगों के जमावड़े को वे निरापद मानते हैं, क्योंकि इसमें
शामिल लोगों पर ऊपर बैठे देवता अपनी कृपा बरसा रहे हैं! इसी कृपा के सहारे लोगों का
विशाल हुजूम कुंभ मेले में नदियों में डुबकी लगाता रहा। नदियों के पानी में श्रद्धालु
अपने पाप धोते रहे और कोविड के केस तूफानी गति से बढ़ते हुए पिछले सारे रिकार्ड तोड़ते
चले गए।
देश में मुख्यधारा के मीडिया ने कुंभ मेले
के नाम पर बड़ी संख्या में लोगांे के एकत्र होने पर दबे स्वर में आवाज उठाई, हालांकि यह आवाज
इतनी कमजोर थी कि खुद को भी शायद सुनाई नहीं दे, ऐसे में सरकार
तक इस आवाज के पहुंचने की उम्मीद करना ही बेमानी है। लेकिन विदेशी मीडिया ने लगातार
इस पर सवाल उठाए और इस तरह के जमावड़े को कोरोना का ‘सुपर स्प्रेडर’बताया। ‘वाशिंगटन पोस्ट’ने तो यहां तक
लिखा कि ‘कोविड संक्रमण ने भारत को निगल लिया है, लेकिन लोग अभी
भी गंगा नदी में बिना मास्क पहने डुबकी लगा रहे हैं।’‘टाइम’मैगजीन ने लिखा,‘कुंभ की तस्वीरों
से पता चलता है कि गंगा में नहाने के लिए लोगों की भारी भीड़ जमा है। लेकिन पुलिस के
पास लोगों को सोशल डिस्टेंसिंग के नियमों का पालन करवाने का कोई अधिकार नहीं है।’ बाद में उत्तराखंड
के पुलिस महानिरीक्षक ने स्वीकार भी किया कि पुलिस ने अगर कुंभ में सोशल डिस्टेंसिंग
के नियमों का पालन करवाने की कोशिश की होती, तो भगदड़ जैसी स्थिति पैदा
हो सकती थी।
कोरोना की दूसरी लहर की अनदेखी राजस्थान समेत
उन राज्यों में भी की गई, जहां विधानसभा चुनाव या
उपचुनाव हो रहे हैं। तमाम राजनीतिक दलों ने अपनी पूरी ताकत चुनावी रैलियों में झोंक
दी और मौत और मायूसी से जुड़ी घटनाओं को पूरी तरह दरकिनार कर दिया गया। अब इस सवाल का
कोई महत्व नहीं रह जाता कि राजनीतिक पार्टियों की इन रैलियों में कितने लोग मास्क पहने
थे। इन रैलियों में सोशल डिस्टेंसिंग की किस हद तक धज्जियां उड़ाई गईं, यह हम सबने देखा।
यहां तक कि खुद प्रधानमंत्री की रैलियों में भी कोविड प्रोटोकॉल का खुला उल्लंघन किया
गया। दूसरी तरफ मीडिया का एक बड़ा वर्ग उन्हें
‘वैक्सीन गुरु’की उपाधि से विभूषित
करता रहा, लेकिन किसी ने यह सवाल नहीं किया कि देश के कुछ राज्य लगातार
वैक्सीन की कमी से क्यों जूझ रहे हैं। सत्ताधारी दल को नाराज करने का ‘दुस्साहस’आखिर कौन करे?