तब भी नीचे धरती थी, ऊपर अम्बर था, मगर बीच में आडम्बर नहीं था
- नारायण बारेठ
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अपने लिए तो सभी जीते हैं, परोपकार के लिए जो जीता है उसे ही जीना कहते हैं। नरसिम्हा हेब्बार ऐसे ही व्यक्ति
हैं। वो पिछले पचास साल से एक वक्त खाना खाते हैं, रोज दस रूपये जोड़ते हैं, ताकि जरुरतमंदों के काम आ सके।
वो पिछले पचास साल से एक वक्त खाना खाते हैं, रोज दस
रूपये जोड़ते हैं, ताकि जरुरतमंदो के काम आ सके। कर्नाटक में चिकमंगलूर
जिले में कुर्वे गांव के नरसिम्हा हेब्बार ने कभी सुना था देश में खाद्यान का संकट
है। हेब्बार ने सुना था तब के प्रधान मंत्री लाल बहादुर शास्त्री खुद भी एक वक़्त भोजन
लेते हैं, उसने सुना था शास्त्री जी का परिवार भी एक समय ही भोजन
करता है। उसने सुना था उस वक्त के नेता कथनी और करनी में फर्क नहीं करते हैं। तब भी
नीचे धरती थी, ऊपर अम्बर था। मगर बीच में आडम्बर नहीं था।
हेब्बार ने कुछ वक्त पहले एक कन्नड़ टीवी से
बातचीत में कहा- 'जब शास्त्री जी ने आह्वान
किया, लोगों ने एक वक्त खाना शुरू कर दिया। लोगों ने राष्ट्रीय कोष में अपनी क्षमता के
मुताबिक अपना योगदान दिया। किसी ने गहने दिए तो किसी ने नकद। हेब्बार ने कितना पैसा दिया, उनके पास इसका कोई हिसाब
नहीं है। कहते हैं, शुरू में कुछ पैसे देता था, लेकिन उन दिनों यह बड़ी रकम थी। इसके बाद वे अपनी गिरह से दस रूपये रोज निकाल कर
अलग रख देते हैं। वे इस रकम का एक हिस्सा राष्ट्रीय
कोष में जमा कराते हैं, कुछ पैसा किसी स्थानीय
जरूरतमंद के लिए रख लेते हैं। छोटे किसान हैं। छोटा खेत है। पर दिल बहुत बड़ा है। काफी
और सुपारी की खेती करते हैं। उम्र अस्सी के पास है। एक वक्त रोटी खाकर भी सेहतमंद हैं।
उन्हें पचाने के लिए जिम नहीं जाना पड़ता है। चार बच्चे हैं। चारो अपना काम करते हैं।
वे अतीत में झांक कर कहते हैं, 'यह 1965 की बात
है। शास्त्री जी के आह्वान पर देश भर में लोगों ने कुछ न कुछ दिया। तब नेता गावो में
आते थे। मिलते थे। खेती उस भारत में राष्ट्र निर्माण का काम था। महज फार्म हाउस नहीं।
यह वो वक्त था जब यकायक अमेरिका ने पी एल
480 गेहूँ को लेकर भारत की बेबसी का फायदा उठाना चाहा। भारत उस वक्त पाकिस्तान से उलझा
हुआ था। अमेरिका चाहता था भारत जंग रोक दे। अन्न का संकट था। जब भारत ने स्वयन्भू कोतवाल
की नहीं सुनी तो अमेरिका ने गेहूं लेकर भारत आ रहे छह जहाज समुद्र तट से 15 किमी दूर
से वापस बुला लिए। शास्त्री ने राष्ट्रपति लिंडन जॉनसन से साफ कह दिया, 'गेहूँ की परवाह
नहीं, झुकेंगे नहीं।' और नहीं झुके। वृतांत है जब
शास्त्री जी घर लौटे, परिवार से कहा- आज शाम
का खाना नहीं बनेगा। फिर मंतव्य बताया। खुद और परिवार ने भूखे रह कर देखा। फिर देश
से आह्वान किया। उन दिनों मीडिया इतना प्रभावी नहीं था। टीआरपी भी नहीं थी। देश ने
आल इंडिया रेडियो से मार्मिक अपील सुनी और मुल्क ने अपने नेता के आह्वान को अपने जीवन
में उतार लिया। सप्ताह में एक वक्त उपवास का कहा था। पर लोगों ने इससे भी ज्यादा किया।
अनाज बचाया, ताकि कोई भूखा न रहे। .
यह वो दौर था जब शास्त्री ने देश को जय जवान
जय किसान का नारा दिया। तब नारे विज्ञापन एजेंसियों
से नहीं बनवाये जाते थे। खाद्यान का संकट गहरा हुआ तो देश में विरोध प्रदर्शन होने
लगे। शास्त्री जी ने विपक्ष के नेताओ के साथ बैठक की। सहयोग माँगा। प्रतिपक्ष मददगार
भी बना । तब सियासत की चादर ऐसी मैली नहीं
थी। राजनीति में विरोधी होते थे, दुश्मन नहीं। यह भारत के
पिछड़ेपन का दौर था। दुःख थे, अभाव थे। राजनैतिक दलों
के पास पैसा नहीं होता था। इतना पैसा नहीं मिलता था कि सियासी पार्टियो याद नहीं रहे
कि बीस हजार से अधिक चंदा किसने दिया है। न सियासी दफ्तरों में वॉर रूम
स्थापित होते थे, लेकिन कार्यकर्त्ता होते थे, वारियर नहीं। संसद
में इतने धनपति नहीं पहुंचते थे। वो एक दुःस्वप्न था। आज राजनीति जब
मुड़कर उस पिछड़ेपन को देखती है तो उसे
बहुत तसल्ली होती है। आज संसद में 475 करोड़पति हैं। भारत ने बहुत तरक्की की है।
धन दौलत की समृद्धि से ह्रदय की स्मृति बड़ी
है। शास्त्र कहते है 'आत्मार्थ जीवलोकेस्मिन को न जीवति मानव:/परं
परोपाकार्थ यो जीवित स जीवति !
अपने लिए तो सभी जीते हैं, परोपकार के लिए जो जीता है उसे ही जीना
कहते हैं। नरसिम्हा हेब्बार ऐसे ही व्यक्ति हैं। शास्त्र के इसी भाव को कभी एक गीतकार ने बादल फिल्म में गीत के शब्दों में बाँधा था।
मन्ना डे की आवाज में जब यह गाना 'अपने लिए जिए तो क्या जिए, तू जी ए दिल जमाने
के लिए' सुनते हैं तो नरसिम्हा हेब्बार का किरदार आँखों में जीवंत हो उठता है। भारत भी वही है, नरसिम्हा हेब्बार भी वही है।
पर क्या रहनुमाई के प्रति वैसा ही विश्वास
भाव भी है ?