फिल्मों पर शिकंजा कसने की एक और कोशिश
फिल्म सेंसर बोर्ड के फैसले से नाखुश फिल्म निर्माताओं को अब सीधे उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाना होगा, क्योंकि कानून मंत्रालय ने फिल्म सर्टिफिकेशन अपीलेट ट्रिब्यूनल को भंग कर दिया है। सरकार के इस फैसले से फिल्मकारों के लिए राहत की उम्मीद ही खत्म हो गई है, क्योंकि सीधे हाई कोर्ट में जाने का अर्थ है मामले को पेचीदा और खर्चीला बनाना।
- श्याम माथुर -
पिछले हफ्ते की शुरुआत में एक अध्यादेश के
द्वारा कानून मंत्रालय ने केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड (सीबीएफसी) के आदेशों से नाखुश
फिल्म निर्माताओं की अपील सुनने के लिए गठित एक सांविधिक निकाय फिल्म सर्टिफिकेशन अपीलेट
ट्रिब्यूनल (एफसीएटी) को भंग कर दिया। ट्रिब्यूनल दरअसल 1983 में सूचना और प्रसारण
मंत्रालय द्वारा स्थापित एक वैधानिक निकाय था, जो सिनेमैटोग्राफ
अधिनियम, 1952 की धारा 5 डी के तहत था। इसका मुख्य काम सिनेमैटोग्राफ
अधिनियम की धारा 5 सी के तहत दायर की गई ऐसी अपीलों को सुनना था, जिन्हें केंद्रीय
फिल्म प्रमाणन बोर्ड के फैसले से नाराज फिल्मकारों द्वारा दायर किया जाता था। ट्रिब्यूनल
की अध्यक्षता एक चेयरपर्सन के पास थी और इसमें चार अन्य सदस्य थे, जिसमें भारत सरकार
द्वारा नियुक्त एक सचिव भी शामिल था। ट्रिब्यूनल का मुख्यालय नई दिल्ली में था।
आप जानते होंगे कि भारतीय फिल्मों के निर्माताओं
को प्रदर्शन से पहले सीबीएफसी का प्रमाणपत्र लेना पड़ता है। फीचर फिल्मों के लिए यह
प्रमाण पत्र यू, यूए, ए और एस श्रेणियों के अंतर्गत
फिल्म के कंटेंट को देख कर दिया जाता है। सामान्य प्रक्रिया के तहत फिल्मकार अपनी फिल्में
पूरी करने के बाद सीबीएफसी में प्रमाणपत्र के लिए जमा करते हैं। फिल्म इंडस्ट्री की
बोलचाल की भाषा में इसे सेंसर कराना कहते हैं और सीबीएफसी को सेंसर बोर्ड कहा जाता
रहा है। अगर किसी फिल्मकार को सेंसर बोर्ड के फैसले पर एतराज होता था, तो वह फिल्म सर्टिफिकेशन
अपीलेट ट्रिब्यूनल के समक्ष अपील कर सकता था। और अगर उसे अपीलेट ट्रिब्यूनल का फैसला
भी मंजूर नहीं हो, तो वह अदालत की शरण ले सकता था। लेकिन अब सरकार ने ट्रिब्यूनल
को भंग कर दिया है, लिहाज अब फिल्मकारों को सेंसर बोर्ड के फैसले के खिलाफ सीधे
हाई कोर्ट में जाना होगा। जाहिर है कि हाई कोर्ट में जाने का अर्थ मामले को पेचीदा
बनाना और लंबे समय तक खींचना है, जो निश्चित तौर पर एक खर्चीला
काम भी होगा।
फिल्म विश्लेषक, विचारक और राजनीतिक
मामलों के पंडित इस पूरे मामले को एक अलग नजरिये से देखते हैं। उनका कहना है कि पिछले
कुछ सालों में सरकार के प्रतिनिधियों द्वारा अनुशंसित और संसद द्वारा पारित प्रस्तावों
पर न तो कोई बहस होती है और ना विपक्षी पार्टियों की कोई सलाह ली जाती है। एफसीएटी
की समाप्ति के समय भी बगैर किसी बहस के सरकारी अध्यादेश जारी कर दिया गया। देश की विभिन्न
संस्थाओं को नियोजित और नियंत्रित करने के बाद सरकार के दक्षिणपंथी नुमाइंदों को लगता
रहा है कि भारतीय फिल्म इंडस्ट्री उनके दबाव और नियंत्रण में नहीं आ पा रही है। दरअसल, भारतीय फिल्म इंडस्ट्री
अभी तक सरकार पर निर्भर नहीं है। फिल्म इंडस्ट्री ने अपनी अर्थव्यवस्था विकसित कर ली
है। वह सीधे बाजार से संचालित होती है। साथ ही फिल्म इंडस्ट्री का सेकुलर चेहरा वर्तमान
सरकार को नागवार गुजरता है। यही कारण है कि वर्तमान सरकार में प्रधान मंत्री समेत तमाम
मंत्री और कार्यकर्ता फिल्म इंडस्ट्री के प्रभावशाली व्यक्तियों को अपने करीब लाने
की कोशिश में जुटे रहते हैं। वे फिल्मों का नैरेटिव बदलना चाहते हैं। उसे अपने पक्ष
में करना चाहते हैं।
बॉलीवुड के कई निर्माता और निर्देशक फिल्म
ट्रिब्यूनल को भंग करने के कानून मंत्रालय के फैसले से काफी निराश हैं। साथ ही फैसले
को वह हिंदी सिनेमा के लिए सबसे बुरा बता रहे हैं। मशहूर निर्माता-निर्देशक हंसल मेहता
ने मंत्रालय के इस फैसले पर प्रतिक्रिया देते हुए अपने आधिकारिक ट्विटर अकाउंट पर लिखा, ‘क्या फिल्म प्रमाणन
की शिकायतों के समाधान के लिए उच्च न्यायालयों के पास इतना समय होता है? कितने फिल्म निर्माताओं
के पास अदालतों का रुख करने का साधन होगा? एफसीएटी की छूट मनमाना
लगती है और निश्चित रूप से प्रतिबंधात्मक है। यह दुर्भाग्यपूर्ण समय क्यों है? यह निर्णय क्यों
लिया?’
वहीं फिल्म निर्देशक विशाल भारद्वाज ने भी ट्विटर पर इस फैसले की निंदा की। उन्होंने
अपने ट्वीट में लिखा, ‘फिल्म सर्टिफिकेशन अपीलेट ट्रिब्यूनल को खत्म करना सिनेमा के
लिए सबसे दुखद दिन है।’ विशाल भारद्वाज के ट्वीट पर फिल्म निर्माता
गुनीत मोंगा ने अपनी प्रतिक्रिया देते हुए लिखा, ‘ऐसा कुछ कैसे होता
है?
कौन तय करता है?’