सियासत से फिर दूर सितारा
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि सिनेमाई मैदान में भले ही रजनीकांत लोकप्रियता के शिखर पर हैं, लेकिन सियासत के दरबार में उनकी परफाॅर्मेंस औसत दर्जे की है। और इस बात का अहसास शायद रजनीकांत को भी है। वे जानते हैं कि अकेले अपने दम पर वे तमिलनाडु विधानसभा में इतनी सीटें नहीं ला सकते कि सरकार बना सकें।
- श्याम माथुर -
भारतीय सिनेमा में सही
अर्थों में महानायक का दर्जा हासिल करने वाले और तमिलनाडु में भगवान की तरह पूजे जाने
वाले रजनीकांत ने एक बार फिर चुनावी राजनीति में कदम नहीं रखने का फैसला किया है। तमिलनाडु
विधानसभा के इसी साल होने वाले चुनावों से पहले जनवरी में अपनी राजनीतिक पार्टी शुरू
करने की घोषणा के बाद पिछले कई सप्ताहों तक लोगों को दुविधा में रखने के बाद सुपर स्टार
ने फिल्मी स्टाइल में स्टंट करते हुए एक और यूटर्न ले लिया है। यह दूसरा मौका है जब
रजनीकांत पार्टी शुरू करने के अपने फैसले से कदम पीछे खींच रहे हैं। उन्होंने 2017
में भी इसी तरह की घोषणा की थी और फिर अपने फैसले से पीछे हट गए थे। रजनीकांत ने तीन
साल पहले राजनीति में उतरने का एलान किया था, हालांकि इस एलान के कुछ
दिनों बाद ही डॉक्टरों ने उन्हें राजनीति से दूर रहने की सलाह दी थी। 2016 में रजनीकांत
का किडनी ट्रांसप्लांट हुआ था। इसे देखते हुए डॉक्टरों ने उन्हें ज्यादा भागदौड़ और
तनाव से दूर रहने की सलाह दी, जिसके बाद उन्होंने सक्रिय
राजनीति का हिस्सा बनने का विचार टाल दिया था। इस बार फिर, जबकि उनके हजारों-लाखों
प्रशंसक राजनीति में उनके दाखिले का बेसब्री से इंतजार कर रहे थे, तलैवा के नाम से
मशहूर रजनी ने अपने कदम पीछे खींच लिए। रजनीकांत ने ट्विटर पर तीन पेज का बयान जारी
करते हुए कहा कि वे राजनीतिक दल नहीं बनाएंगे। उन्होंने अपने प्रशंसकों से इसके लिए
माफी भी मांगी है। उन्होंने कहा कि यह ऐलान करते हुए उन्हें कितना कष्ट हो रहा है, इसे वही महसूस
कर सकते हैं।
रजनीकांत के चुनावी राजनीति
में कदम नहीं रखने के फैसले से सबसे ज्यादा राहत की सांस दक्षिण की दोनों द्रविड़ पार्टियों
- द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (डीएमके) और ऑल इंडिया अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (एआईडीएमके)
ने ली होगी। और न सिर्फ द्रविड़ दलों ने, बल्कि द्रविड़ कड़गम आंदोलन
से निकले अन्य संगठन भी शायद यही प्रार्थना कर रहे थे कि रजनीकांत राजनीति से दूर ही
रहें। दक्षिण की राजनीति में दिलचस्पी रखने वाले लोग इसकी वजह भी जानते ही होंगे। वर्तमान
में तमिलनाडु में ऑल इंडिया अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कड़गम की सरकार है और ज्यादातर मतदाता
इस सरकार से खफा नजर आते हैं। लोगों का कहना है कि इस सरकार से उन्होंने जो उम्मीदें
लगाई थीं, वे पूरी नहीं हुई हैं। मतदाताओं के इस मोहभंग का सीधा और तात्कालिक
लाभ डीएमके को ही मिलेगा।
रजनीकांत की राजनीति में
दिलचस्पी के बारे में तमिलनाडु के लोगों को पहली बार साल 1996 में पता चला। उस समय
जयललिता तमिलनाडु की मुख्यमंत्री थीं। उनके दत्तक पुत्र वी एन सुधाकरण के विवाह समारोह
ने बेहिसाब खर्च की वजह से देश भर में सुर्खियां बटोरी थीं। रजनीकांत ने तब खुलकर कहा
था कि सरकार में बहुत भ्रष्टाचार है और इस तरह की सरकार को सत्ता में नहीं होना चाहिए।
साल 2014 में नेशनल डेमोक्रेटिक एलायंस ने संसदीय चुनावों में नरेंद्र मोदी का नाम
प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर आगे बढ़ाया। मोदी ने चेन्नई में रजनीकांत के
आवास पर मुलाकात की। इसके बाद रजनीकांत ने कहा, ‘मोदी एक ग्रेट
लीडर और अच्छे प्रशासक हैं। मैं उन्हें चुनाव में सफल होने के लिए शुभकामना देता हूं।’ साल 2014 में ही
तत्कालीन मुख्यमंत्री जयललिता को जब आय से अधिक सम्पत्ति के मामले में 14 दिन के लिए
जेल भेजा गया, तब रजनीकांत ने इस कार्रवाई पर खुशी जाहिर की थी। 1996 के विधानसभा
चुनाव में रजनीकांत ने डीएमके-टीएमसी गठबंधन को अपना समर्थन दिया था और इस पर बहुत
सारे लोगों ने हैरानी भी जताई थी।
दक्षिण भारत की राजनीति
में हमेशा फिल्म स्टारों का बोलबाला रहा है। तमिलनाडु में अन्नादुराई से लेकर जयललिता, करुणानिधि और एमजीआर
तक,
हर मुख्यमंत्री का फिल्म उद्योग से एक लंबा जुड़ाव रहा है। लेकिन वे किसी न किसी
राजनीतिक पार्टी से संबद्ध थे, जिसका उन्हें चुनावों के
दौरान भरपूर फायदा भी मिला। शायद रजनीकांत ने भी यही सोचकर सक्रिय राजनीति के मैदान
में उतरने का फैसला किया था। 2017 में जब उन्होंने राजनीति में कदम रखने का एलान किया, तो उन्होंने अपने
प्रशंसकों को रजनी मक्कल मंद्रम (आरएमएम) नामक एक संगठन से जोड़ा, जिसे बाद में राजनीतिक
पार्टी के रूप में लॉन्च किया जाना था। पर रजनीकांत के पीछे हटने से ऐसा हो नहीं सका।
और साल 2020 के आखिर में भी जब उन्होंने अपने कदम पीछे खींचे, तो लोगों को कोई
बहुत हैरानी नहीं हुई। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि सिनेमाई मैदान में भले ही
रजनीकांत लोकप्रियता के शिखर पर हैं, लेकिन सियासत के दरबार
में उनकी परफाॅर्मेंस औसत दर्जे की है। और इस बात का अहसास शायद रजनीकांत को भी है।
वे जानते हैं कि अकेले अपने दम पर वे तमिलनाडु विधानसभा मंे इतनी सीटें नहीं ला सकते
कि सरकार बना सकें। उन्हें यह भी अहसास हुआ होगा कि उनके मैदान में उतरने से बाकी दलों
का वोट प्रतिशत भी कम होगा, जिससे प्रदेश में त्रिशंकु
विधानसभा की स्थिति बन सकती है। और भारतीय जनता पार्टी के साथ उनके करीबी रिश्ते भी
लोगों की आंखों में खटकते रहे हैं। तमिलनाडु का मतदाता चाहे कितना ही भावुक और जज्बाती
हो,
बात जब वोट देने की हो, तो वह सोच-समझकर फैसला
करता है। शायद इन्हीं तमाम कारणों से रजनीकांत ने तमिलनाडु के राजनीतिक परिदृश्य से
दूरी बनाए रखने का फैसला किया। रजनीकांत के दौड़ से बाहर होने के बाद अब 2021 का विधानसभा
चुनाव फिल्म उद्योग से जुड़ी किसी बड़ी शख्सियत के बगैर राज्य का पहला चुनाव होगा।