विज्ञान फिल्मों के जरिये बदलाव की मुहिम

 

- श्याम माथुर -

वर्तमान दौर में अनेक स्वतंत्र फिल्मकार ऐसे हैंजो एक परिपाटी या यूं कहें कि लीक को तोड़ते हुए नए और प्रासंगिक विषयों पर फिल्में बनाने का प्रयास कर रहे हैं। ये ऐसी फिल्में हैंजिन्हें मुख्यधारा की फिल्मों की तरह भले ही सिनेमाघरों में या ओटीटी प्लेटफॉर्म पर रिलीज होने का सौभाग्य नहीं मिलतालेकिन सिनेमा के ठहरे हुए संसार में इन फिल्मों ने हलचल जरूर मचाई है।

विज्ञान और सिनेमा के बीच क्या कोई परस्पर अंतरसंबंध हो सकता है- यह एक ऐसा सवाल है, जिसका जवाब तलाशने की कोशिश हमारे देश में शायद कभी नहीं की गई है। ज्यादातर लोगांे का मानना है कि विज्ञान एक अलहदा विषय है, जिसमें हम जीवन के गूढ़ रहस्यों का हल खोजते हैं और सिनेमा का संबंध सीधे-सीधे मनोरंजन से है, जिसमें जीवन की बारीकियों और हमारी जिंदगी के जटिल रहस्यों के लिए कोई स्थान नहीं है। इस तरह के विचार रखने वाले बहुत कम लोगों को शायद इस बात की जानकारी होगी कि हमारे देश में हर साल अंतरराष्ट्रीय विज्ञान फिल्म महोत्सव का आयोजन किया जाता है और इस दौरान विज्ञान और सिनेमा के आपसी सहयोग से जुड़ी नवीन संभावनाओं की तलाश की जाती है। अंतरराष्ट्रीय विज्ञान फिल्म महोत्सव का आयोजन पिछले छह साल से हो रहा है और दुनियाभर के फिल्मकार इस महोत्सव में अपनी फिल्मों को प्रदर्शित करने का प्रयास करते हैं। सिनेमाई संस्कृति के लिहाज से इस आयोजन को अत्यंत महत्वपूर्ण माना जाता है और इस तरह सिनेमा के माध्यम से विज्ञान को आम लोगों तक पहुंचाने का एक ऐसा सिलसिला कायम किया जाता है, जिसकी दूसरी कोई मिसाल नहीं मिलती।

कोरोना प्रोटोकाॅल के कारण इस बार यह समारोह ऑनलाइन प्लेटफार्म के माध्यम से आयोजित किया गया। भारतीय अंतरराष्ट्रीय विज्ञान फिल्म महोत्सव के समापन सत्र को संबोधित करते हुए जाने-माने अभिनेता अमिताभ बच्चन ने कहा कि विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी की देश के सामाजिक-आर्थिक विकास में एक अहम भूमिका रही है। उन्होंने आम लोगों तक विज्ञान और टैक्नोलाॅजी आधारित ज्ञान और सूचनाओं को पहुँचाने की आवश्यकता पर भी बल दिया। इस संदर्भ में उन्होंने भारतीय अंतरराष्ट्रीय विज्ञान फिल्म महोत्सव के आयोजन को सराहनीय बताया। उन्होंने विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्रालय द्वारा फिल्मों, टेलीविजन कार्यक्रमों और अन्य संचार गतिविधियों के माध्यम से विज्ञान को आम लोगों तक पहुँचाने जाने के प्रयासों को भी सराहा।

दरअसल यह बहुत जरूरी है कि वैज्ञानिक और फिल्मकार साथ मिलकर काम करने की दिशा में आगे बढ़ें। हम सब जानते हैं कि वैज्ञानिक खोज के लिए जिज्ञासा और साहस की भावना की आवश्यकता होती है, और अच्छे फिल्मकार विज्ञान और वैज्ञानिकों पर प्रेरक फिल्मों का निर्माण करके युवा पीढ़ी के बीच इस गुण को विकसित करने में मदद कर सकते हैं। किसी देश के सामाजिक-आर्थिक विकास में विज्ञान और टैक्नोलाॅजी की एक महत्वपूर्ण भूमिका रही है। विज्ञान और टैक्नोलाॅजी के क्षेत्र में किए जा रहे नवाचारों को आम लोगों तक पहुंचाने में सिनेमा निश्चित तौर पर एक बड़ी भूमिका निभा सकता है। खुशी का बात यह है कि छठे भारतीय अंतरराष्ट्रीय विज्ञान महोत्सव में भी अनेक ऐसी फिल्मों का प्रदर्शन किया गया, जिनमें हमारे आसपास की जिंदगी से उठाए गए विषयों का खूबसूरती से चित्रण किया गया है। उदाहरण के लिए जर्मनी के फिल्मकार एन्ड्रियाज इवेल्स की फिल्म द इन्सेक्ट रेसक्यूअरको ही लीजिए। यह फिल्म ईकोलाॅजिकल बैलेंस की बात करती है और इस दिशा में  किए जाने वाले छोटे से छोटे प्रयास को भी महत्वपूर्ण बताती है। इसी तरह ईरान की फिल्म नाइट नर्समें कोविड के बाद उपजे हालात में मेडिकल प्रोफेशन से जुड़े लोगों के योगदान को रेखांकित करती है। खास बात यह है कि द इन्सेक्ट रेसक्यूअरऔर नाइट नर्सको अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पुरस्कार भी मिले हैं।

छठे भारत अंतरराष्ट्रीय विज्ञान महोत्सव में विदेशी श्रेणियों में जिन अन्य फिल्मांे को पुरस्कृत किया गया, उनमें शामिल हैं- अंग्रेजी फिल्म ए नेचुरल कोड’, जिसका निर्माण और निर्देशन ब्रिटेन की क्रिस्टीना सेयूका ने किया है, आस्ट्रेलिया की फिल्म आईरनी’, जिसका निर्माण राधेय जगेथेवा और जे जय जेगथेसन ने किया है। इनके साथ ही बिना डायलॉग की एक फिल्म कीप योर स्माइलको भी पुरस्कार मिला, जिसका निर्माण और निर्देशन ईरान के हसन मोखतारी ने किया है और एक इतालवी फिल्म जिसका शीर्षक कैमिकल इंडस्ट्रीज वर्सेस कोविड-19है, जिसका निर्माण-निर्देशन विटोरियो कैरेटोजोलो ने किया है।

इस महोत्सव में भारतीय फिल्मों के लिए भी दो श्रेणियों के तहत अवार्ड दिए गए- स्वतंत्र फिल्म निर्माता और महाविद्यालय/विद्यालय के छात्र।

स्वतंत्र फिल्म निर्माताओं के विजेताओं में अंग्रेजी फिल्म द ट्रायल्स एंड ट्राइअम्फ ऑफ जी.एन. रामचंद्रनशामिल है, जिसका निर्माण विवेक कन्नाडी ने तथा निर्देशन राहुल अय्यर ने किया है। इसी सिलसिले में हिन्दी फिल्म राजा, रानी और वायरसको भी पुरस्कृत किया गया, जिसका निर्माण बीकन टेलीविजन ने तथा निर्देशन सीमा मुरलीधरा ने किया है। अंशुल सिन्हा के निर्देशन में बनी फिल्म ह्यूमन वर्सेस कोरोनाको भी जूरी पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

इन तमाम फिल्मों का जिक्र करने के पीछे मकसद यह बताना है कि वर्तमान दौर में अनेक स्वतंत्र फिल्मकार ऐसे हैं, जो एक परिपाटी या यूं कहें कि लीक को तोड़ते हुए नए और प्रासंगिक विषयों पर फिल्में बनाने का प्रयास कर रहे हैं। कई फिल्मकारों ने इधर कोरोना वायरस के वैश्विक प्रकोप को लेकर फिल्मों का निर्माण किया है। ये ऐसी फिल्में हैं, जिन्हें मुख्यधारा की फिल्मों की तरह भले ही सिनेमाघरों में या ओटीटी प्लेटफाॅर्म पर रिलीज होने का सौभाग्य नहीं मिलता, लेकिन सिनेमा के ठहरे हुए संसार में इन फिल्मों ने हलचल जरूर मचाई है। साफ है कि विज्ञान से संबंधित विषयों पर बने वृत्तचित्र और अन्य फिल्में लोगों को जागरूक बनाने की दिशा में एक सशक्त माध्यम हैं। अगर हम इस तरह के सिनेमा को अपना पूरा सपोर्ट प्रदान करें और इनके लिए यथेष्ट बजट तथा अन्य सहायता उपलब्ध कराएं, तो हमारी यह कोशिश निश्चित तौर पर बदलाव की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम साबित हो सकती है।

 

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