मीडिया को लेकर गुस्सा ही नहीं, नफरत भी
- श्याम माथुर -
पहले लोग अपनी बात सरकार तक पहुंचाने के लिए मीडिया के सामने आते थे, लेकिन हम देख रहे हैं कि दिल्ली को हरियाणा और उत्तर प्रदेश से जोड़ने वाले राजमार्गों पर किसानों का जो आंदोलन चल रहा है, उसमें कई बड़े चैनलों के रिपोर्टरों को भगाया जा रहा है, उन्हें प्रदर्शन स्थल से बाहर निकाला जा रहा है। लोगों में मीडिया के लिए ऐसा गुस्सा पहले कभी नहीं देखा गया। किसानों का आरोप है कि मीडिया ने आंदोलन को बदनाम करने की कोशिशें की हैं और इससे लोगों का मीडिया के प्रति भरोसा टूट गया है। पत्रकारिता के लिहाज से निश्चित तौर पर यह एक गंभीर मुद्दा है।
देश की राजधानी दिल्ली को हरियाणा और उत्तर प्रदेश से जोड़ने वाले राजमार्गों पर किसानों का जो आंदोलन चल रहा है, उसमें मीडिया के प्रति दिख रहा गुस्सा असाधारण है। केंद्र सरकार के किसान कानूनों के खिलाफ देश में चल रहे किसान आंदोलन का यह एक ऐसा पहलू है, जिसे नजरअंदाज करना न तो मीडिया के लिए अच्छा रहेगा और न ही केंद्र सरकार के लिए। करीब दो हफ्ते पहले जब यह आंदोलन शुरू हुआ था, तब किसी को भी शायद इस बात का अंदाजा नहीं था कि किसान आंदोलन के समर्थन में बड़ी तादाद में लोग उमड़ आएंगे। आज न सिर्फ राजधानी दिल्ली के आसपास, बल्कि दुनिया के दूसरे देशों में भी किसान आंदोलन के समर्थन में प्रदर्शन हो रहे हैं। हाल ही इस आंदोलन के समर्थन में लंदन में प्रदर्शन देखने को मिला। कोरोना वायरस के इस दौर में लंदन में भारतीय उच्चायोग के बाहर तख्तियां लेकर खड़े लोगों को देखकर यह साबित हो गया है कि किसान आंदोलन की आग किस हद तक व्यापक स्तर पर फैल गई है।
मुख्यधारा के मीडिया ने हालांकि शुरुआती तौर पर इस आंदोलन को बहुत गंभीरता से नहीं लिया और इसके कवरेज को लेकर भी उसने लापरवाही दिखाई। उनका आकलन शायद यह था कि पंजाब से आए कुछ मुट्ठीभर किसानों का यह विरोध प्रदर्शन जल्द की खत्म हो जाएगा। लेकिन सोशल मीडिया और लोकल चैनलों ने इस आंदोलन को जिंदा रखा, जबकि नेशनल मीडिया ने इसे कोई तवज्जो नहीं दी। बल्कि कुछ टीवी चैनलों ने तो आंदोलन में शामिल किसानों की भूमिका और उनकी पहचान को लेकर भी सवाल उठाए। इससे आंदोलन करने वाले ज्यादातर किसानों के बीच यह धारणा बन गई कि मीडिया सरकार की वाहवाही लूटने के लिए किसानों को एंटी नेशनल साबित करने में जुट गया है। पत्रकार ये दिखाने का मौका ढूंढ रहे हैं कि देश विरोधी और एंटी नेशनल तत्व आंदोलन में शामिल हैं।
यही वो बिंदु था जहां से किसान आंदोलन में शामिल लोगांे ने मीडिया के प्रति गहरा अविश्वास जताया और फिर एक दौर वह भी आया जब मुख्यधारा के टीवी चैनलों के पत्रकारों को लोग खुलकर हूट करने लगे और दौड़ा-दौड़ा कर उन्हें धरना स्थल से भगाने लगे। हालात यह हो गए थे कि किसान आंदोलन के दौरान एमएसपी यानी न्यूनतम समर्थन मूल्य के बाद सबसे अधिक यदि कोई शब्द सुनाई देने लगा, तो वो है गोदी मीडिया। ये वाक्यांश मीडिया के उस हिस्से के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है, जो प्रदर्शनकारियों की नजर में सरकार का पक्ष रख रहा है और किसानों के आंदोलन के बारे में आधारहीन नकारात्मक खबरें प्रसारित कर रहा है। किसान आंदोलन के दौरान अनेक बार ऐसी स्थितियां भी बनी जब कैमरामैन और हाथ में माइक लिए रिपोर्टरों को देखते ही ‘गोदी मीडिया गो बैक!‘ के नारे लगने लगे। ऐसा पहली बार नहीं हुआ है जब सरकार के फैसलों के विरोध में खड़े हुए किसी आंदोलन के दौरान मीडिया के प्रति लोगांे ने नाराजगी जाहिर की हो। लेकिन किसानों के आंदोलन के दौरान मीडिया की जो फजीहत की गई, उससे यह साबित हो गया है कि मीडिया, जो अपने आप को लोकतंत्र का चैथा स्तंभ कहता है, कहीं ना कहीं उसने अपनी विश्वसनीयता लोगों की नजर में खो दी है।
मीडिया की जिम्मेदारी समाज के साथ हो रहे अन्याय को सामने लाना है। लेकिन किसान आंदोलन के मामले में ऐसा लगा कि मीडिया लोगों की बात रखने के बजाए सरकार का पक्ष ही दिखा रहा है। बहुत से चैनल आंदोलन को पाकिस्तान और खालिस्तान से जोड़कर दिखाते रहे। इसकी वजह से लोगों में मीडिया के लिए गुस्सा बढ़ता गया।
दरअसल इस सच्चाई को आज सब जान गए हैं कि मुख्यधारा का मीडिया ऐसी चीजों को कवर करने से बच रहा है, जिनसे सरकार के असहज या नाराज होने का अंदेशा हो। मीडिया आजकल ऐसे कोई सवाल नहीं उठाता, जो सरकार को परेशानी में डालते हों। न सिर्फ राष्ट्रीय समाचार पत्र, बल्कि क्षेत्रीय भाषाई अखबार भी अपने-अपने प्रदेशों की सरकारों के खिलाफ एक शब्द भी छापने से कतराते हैं। सरकार में बैठे मंत्रियों और उच्च अधिकारियों के साथ अपनी सेल्फी खिंचवाने वाले पत्रकारों की जमात को अब इस बात पर शर्म भी नहीं आती। वे बड़े आराम से सरकार के साथ अपनी नजदीकी के कसीदे पढ़ते रहते हैं। दूसरी तरफ, सिंद्धांतप्रिय और उसूलों पर चलने वाले चंद पत्रकारों को वे अप्रासंगिक बताते हुए अपना उल्लू सीधा करने मंे जुटे रहते हैं।
राज्यों से निकलने वाले हिंदी अखबारों की बात करें, तो इनमें काम करने वाले ज्यादातर पत्रकार अपनी खबरों में हमेशा ऐसे एंगल तलाशते रहते हैं, जो सरकार के एजेंडे को ही आगे बढ़ाए। अधिकांश हिंदी अखबार अपने-अपने प्रदेश के मुख्यमंत्री के फोटो सजाकर नियमित तौर पर ऐसे समाचार प्रकाशित करते हैं, जिनमें मुख्यमंत्री की तारीफों के पुल बांधे जाते हैं। प्रतिरोध की आवाजों को तत्काल दबा दिया जाता है और मीडिया का एक बड़ा वर्ग भी प्रतिरोध को कुचलने में सरकार का साथ निभाता है।