मी लार्ड, पूर्वोत्तर के पत्रकारों की भी करें कुछ चिंता!


- श्याम माथुर -

अहम सवाल यह है कि सिर्फ हाई प्रोफाइल मामलों में ही सुप्रीम कोर्ट को किसी की व्यक्तिगत स्वतंत्रता की चिंता क्यों होती है? दिल्ली और मुंबई में पत्रकारों के साथ कुछ हो, तो हंगामा क्यों मच जाता है? क्या देश के दूसरे तमाम नागरिकों और पत्रकारों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता कोई मायने नहीं रखती? क्यों देश के अनेक राज्यों मे पत्रकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं की व्यक्तिगत स्वतंत्रता की रक्षा कोई नहीं कर पा रहा है?

पत्रकारिता से इतर एक क्रिमिनल मामले में  जब रिपब्लिक भारत के संपादक अर्णब गोस्वामी की गिरफ्तारी हुई, तो सामाजिक और राजनीतिक हलकों में मानो तूफान आ गया। उनकी गिरफ्तारी के विरोध में केंद्र के तमाम मंत्रियों और भारतीय जनता पार्टी के शीर्ष नेताओं ने ट्वीट किए और इसे लोकतंत्र की हत्या तक करार दिया। और जैसा कि इन दिनों चलन है, पत्रकारों के एक बड़े समुदाय ने भी अर्णब की गिरफ्तारी को ‘अभिव्यक्ति की आजादी पर हमला‘ बताया। यहां तक कि अर्णब को जमानत पर रिहा करते हुए सुप्रीम कोर्ट के जज डी.वाई चंद्रचूड़ ने भी कहा- ‘‘अगर हम संवैधानिक अदालत के रूप में कानून का पालन नहीं करते हैं और स्वतंत्रता की रक्षा नहीं करते हैं तो कौन करेगा? अगर आज हम इस मामले में दखल नहीं देते हैं तो ये हमें तबाही के रास्ते पर ले जाएगा।‘‘



देश की सर्वोच्च अदालत ने सही कहा। नागरिकों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता की रक्षा करना बेहद जरूरी है और अगर सरकार यह काम नहीं कर पाए, तो सुप्रीम कोर्ट का आदेश ही काम आता है। लेकिन इसके साथ ही यह सवाल भी सामने आता है कि सिर्फ हाई प्रोफाइल मामलों में ही सुप्रीम कोर्ट को किसी की व्यक्तिगत स्वतंत्रता की चिंता क्यों होती है? दिल्ली और मुंबई में पत्रकारों के साथ कुछ हो, तो हंगामा क्यों मच जाता है? क्या देश के दूसरे तमाम नागरिकों और पत्रकारों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता कोई मायने नहीं रखती? क्यों देश के अनेक राज्यों मे पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता अपनी व्यक्तिगत स्वतंत्रता की रक्षा नहीं कर पा रहे हैं? 

ऐसे तमाम सवाल आज इसलिए भी प्रासंगिक हो जाते हैं, क्योंकि हाल ही सामने आई एक रिपोर्ट में कहा गया है कि पूर्वोत्तर भारत के राज्यों में पत्रकारों को माफिया और सरकार दोनों के दबाव में काम करना पड़ता है। मणिपुर, त्रिपुरा, मिजोरम और असम जैसे राज्यों में पत्रकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं पर चैतरफा दबाव डाले जाने की खबरें लगातार सामने आ रही हैं। मणिपुर में सोशल मीडिया पोस्ट के लिए कई पत्रकारों की गिरफ्तारी हो चुकी है। पड़ोसी त्रिपुरा में भी गिरफ्तारी के साथ हत्याएं तक हो चुकी हैं। कुछ पत्रकारों को राजद्रोह के मुकदमों का सामना करना पड़ रहा है। उनका कसूर सिर्फ इतना है कि उन्होंने अपने राज्यों की सरकारों को परेशान करने वाली सच्चाई को सामने लाने का काम किया है। मणिपुर के एक टीवी पत्रकार किशोर चंद्रा वांगखेम को फेसबुक की एक पोस्ट के चलते 29 सितंबर को गिरफ्तार किया गया। किशोर को भाजपा के एक हाई प्रोफाइल नेता की पत्नी की सोशल मीडिया पर वायरल पोस्ट पर टिप्पणी के आरोप में गिरफ्तार किया गया था। उनकी गिरफ्तारी दो समुदायों के बीच दुश्मनी भड़काने के आरोप में की गई थी। भाजपा नेता की पत्नी राज्य के एक अलग मणिपुरी जनजाति मारम समुदाय से आती हैं। इस मामले में अजीब बात यह है कि जिस सोशल मीडिया पोस्ट को लेकर किशोर के खिलाफ कार्रवाई की गई, उस पोस्ट को मीडिया पर वायरल करने वाली भाजपा नेता की पत्नी पर कोई कार्रवाई नहीं की गई। लेकिन पत्रकार किशोर चंद्रा वांगखेम आज भी कानूनी और पुलिसिया कार्रवाई का सामना कर रहे हैं।

किशोर चंद्रा वांगखेम करीब दो साल पहले तब सुर्खियों में आए थे, जब मणिपुर सरकार के निर्देश पर उन्हें राजद्रोह के आरोप में गिरफ्तार किया गया था। प्रदेश के मुख्यमंत्री के खिलाफ टिप्पणी के लिए उनके खिलाफ यह कार्रवाई की गई थी। उन्होंने भाजपा सरकार के मुख्यमंत्री एन. बीरेन सिंह की आलोचना करते हुए उनको केंद्र की कठपुतली करार दिया था। इस टिप्पणी पर उन्हें लगभग छह महीने जेल में रहना पड़ा और मणिपुर हाईकोर्ट के निर्दश के बाद वे अप्रैल, 2019 में जेल से रिहा हुए।

पूर्वोत्तर में पत्रकारों के उत्पीड़न का यह पहला या आखिरी मामला नहीं है। इससे पहले मिजोरम में एक नेशनल चैनल की पत्रकार एम्मी सी. लाबेई की भी पुलिस ने पिटाई की थी। वे असम-मिजोरम सीमा विवाद के दौरान हुई हिंसक झड़प की कवरेज के लिए मौके पर गई थीं। हाल ही मेघालय स्थित ‘शिलांग टाइम्स‘ की संपादक पैट्रिशिया मुखिम पर भी हमला हो चुका है। हाल ही पैट्रिशिया पर अपने सोशल मीडिया पोस्ट के जरिए दो समुदायों के बीच सांप्रदायिक तनाव भड़काने के आरोप में मामला दर्ज किया गया है। मुखिम ने राज्य में गैर-आदिवासी छात्रों पर हुए हमले को लेकर एक फेसबुक पोस्ट लिखी थी। उसके बाद उनके खिलाफ सांप्रदायिक तनाव भड़काने के आरोप में एफआईआर दर्ज की गई थी। इस साल जुलाई में एक बास्केटबॉल कोर्ट में पांच लड़कों पर हमला हुआ था। हत्यारों का पता नहीं चलने के बाद मुखिम ने फेसबुक पोस्ट के जरिए इसकी आलोचना की थी। वर्ष 2012 में ‘अरुणाचल टाइम्स‘ की संपादक टोंगम रीना के पेट में गोली मार दी गई थी, लेकिन वे बच गईं थीं। 

असम की बात करें, तो एक रिपोर्ट से पता चलता है कि वर्ष 1987 से 2018 के बीच वहां कम से कम 32 पत्रकारों की हत्या हो चुकी है। असम की राजधानी गुवाहाटी से महज 35 किमी दूर मिर्जा में मिलन महंत नामक एक युवा पत्रकार को सरेआम खंभे से बांध कर पीटा गया। उसका कसूर यह था कि उसने इलाके में चलने वाले जुए के अवैध ठिकानों और जमीन पर कब्जा करने वालों के बारे में खबरें छापी थीं।


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