टीवी चैनलों के साथ-साथ प्रिंट मीडिया में भी जारी है जोड़-तोड़ का ‘खेल'

नई दिल्ली। वरिष्ठ पत्रकार आलोक मेहता ने कहा है कि फेक टीआरपी के मामले में इन दिनों बदनामी के दौर से गुजर रहे टीवी चैनल ‘कोयले की दलाली में काले हाथ' करने वाले अकेले नहीं हैं, बल्कि प्रिंट मीडिया में भी पिछले अनेक वर्षों से जोड़-तोड़ का ‘खेल' चल रहा है। यही कारण है कि मीडिया से जुड़े लोगों को इस मामले में नया कुछ भी नजर नहीं आता। पोर्टल https://www.samachar4media.com/ पर अपने एक आलेख में वे सवाल करते हैं कि इस गड़बड़ी के  लिए सिर्फ इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को ही क्यों दोष दिया जाए? क्या हम प्रिंट मीडिया में प्रसार संख्या में भरी गड़बड़ियों से  परिचित नहीं हैं और क्या हमने इसका अनुभव नहीं किया है? दशकों से छोटी, मध्यम और बड़ी मीडिया कंपनियां दूसरे अखबारों और मैगजींस के सर्कुलेशन के आंकड़ों को चुनौती देती रही हैं। इसका दुर्भाग्यपूर्ण पहलू ये है कि सरकार और निजी बिजनेस ग्रुप भी इस ‘नंबर गेम’ (सर्कुलेशन/रीडरशिप/व्युअर्स) को प्राथमिकता देते हैं। निश्चित रूप से यह भी एक बड़ा मानदंड है, लेकिन इससे गुणवत्ता पर असर पड़ता है और कुछ मीडिया मालिक व मार्केटिंग से जुड़े लोग ज्यादा से ज्यादा एडवर्टाइजिंग पाने के लिए जोड़-तोड़ का ‘खेल’ शुरू कर देते हैं। लाखों की प्रसार संख्या दिखाने का हथकंडा अपनाते हैं।



उन्होंने लिखा - करीब दस साल पहले एक सेमिनार के दौरान मैंने एक न्यूज चैनल के वरिष्ठ संपादक को कुछ प्रिंट मीडिया में सर्कुलेशन के इस फर्जीवाड़े और आंखों में धूल झोंककर विज्ञापन से मोटी कमाई की समस्या पर स्टिंग करने का सुझाव दिया था। मैं और मेरे कई साथियों को इस बात की जानकारी थी कि किस तरह से तमाम पब्लिकेशंस द्वारा अखबार/मैगजींस की कॉपियों को गोदाम में डाल दिया गया और बाद में कचरे के रूप में छोड़ दिया गया। लेकिन इस मुद्दे पर अधिक हंगामा नहीं हुआ। स्टिंग भी नहीं हुआ। कुछ सुधरे, कुछ और बिगड़े। न्यूज चैनल्स में भी यही समस्या तब शुरू हो गई, जब हमने उन सभी लोगों के लिए दरवाजे खोल दिए जो किसी भी तरह पूंजी निवेश और कमाई कर सकते थे। तमाम नए प्लेयर्स हमेशा मुनाफा कमाने की जल्दी में रहते हैं। तमाम पॉलिटिकल पार्टीज, बिजनेस हाउसेज और अन्य लॉबी भी एक अथवा दूसरे चैनल का सपोर्ट करते हैं और ‘दुश्मनी’ को नष्ट करने में मदद करते हैं। 


उन्होंने आगे लिखा - टीवी चैनल्स के बीच टीआरपी की ‘जंग’के साथ अब उसके भंडाफोड़ की नौबत आ गई है। इस मामले में भले ही मुंबई पुलिस पर कुछ पत्रकारों पर बदले की कार्रवाई और महाराष्ट्र के सत्तारूढ़ नेताओं का समर्थन करने के आरोप लग रहे हों, लेकिन पूरे विवाद का दुर्भाग्यपूर्ण पहलू यह है कि संपादकीय से जुड़े कुछ  वरिष्ठ साथी अपनी विश्वसनीयता खो रहे हैं। अब सवाल यह उठता है कि इस पूरे मामले में किसे दोष दिया जाए? इंडस्ट्री के कुछ बड़े खिलाड़ी इस मामले में परस्पर दोषारोपण कर रहे हैं और उन पर डाटा से छेड़छाड़ के आरोप लगा रहे हैं। वास्तव में न्यूज चैनल्स के टीआरपी का बिजनेस पिछले दो दशक से अनेक विवादों का विषय रहा है। वर्ष 2006-2007 के दौरान हिंदी मैगजीन ‘आउटलुक’के संपादक के रूप में मैंने विस्तार से इस पर एक रिपोर्ट छापी थी और रेटिंग एजेंसी के एक वरिष्ठ अधिकारी ने मुझसे मिलकर अपना विरोध जताया और स्पष्टीकरण छापने के लिए कहा, लेकिन  अपनी रिपोर्ट में तथ्य होने से हमने रुख नहीं बदला और कोई स्पष्टीकरण प्रकाशित नहीं किया। इसलिए, हाल में हुए खुलासे से मीडिया के लोग आश्चर्यचकित नहीं हैं, लेकिन हम इससे बुरा महसूस करते हैं और दुखी है। हम चाहते हैं कि इसका कोई दीर्घकालिक समाधान सामने आए। 


देश में निजी  चैनल्स के विस्तार के साथ ही मीडिया बिजनेस में टीवी रेटिंग्स काफी विवादास्पद मुद्दा रहा है और अभी तक रेटिंग कंटेंट की प्राथमिकताओं को निर्धारित करना जारी रखे हुए है। टीआरपी जिस तरह से इंडस्ट्री का एक मापदंड बन गया है, वह अपरिहार्य और पेचीदा बन चुका है। ब्रॉडकास्टर्स ने अक्सर टीआरपी की विश्वसनीयता पर सवाल उठाए हैं, लेकिन हाल के महीनों में यह एक ‘गंदे खेल में परिवर्तित हो गया है। पश्चिमी समाज का फॉर्मूला, विदेश एजेंसियों का कुछ नियंत्रण और मीडिया इंडस्ट्री में गलाकाट प्रतियोगिता के कारण इस तरह की समस्याएं बढ़ रही हैं। 


यदि हम इतिहास की बात करें तो एक किताब पर्याप्त नहीं होगी। जब हम चुनौतियों और संकट का सामना कर रहे हैं तो हमें सकारात्मक रूप से सोचने और विश्वसनीयता, अस्तित्व, विस्तार और रेवेन्यू के समाधान खोजने की कोशिश करने की जरूरत है। हमें ‘स्वदेशी’ बनने की कोशिश करने की जरूरत है। भारतीय मीडिया को पश्चिमी देशों के समाज और भारत के सामाजिक और पारिवारिक जीवन में अंतर के बारे में बेहतर जानकारी है। पश्चिमी देशों में लोगों की औसत आमदनी की क्षमता और जीवन शैली विभिन्न क्षेत्रों में ज्यादा अलग नहीं होती है, लेकिन भारत की बात करें तो यहां आपको अमीरों के बंगलों के पास गरीबों की बस्तियां भी भी मिलती हैं और आय वर्ग भी भिन्न है। इसके अलावा एक ही परिवार की तीन पीढ़यों में जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में अलग-अलग पसंद हो सकती है। 


वैसे भी, न्यूज चैनल्स पर हालिया टीआरपी विवाद की वजह से सरकार को नए नियम, रेगुलेशंस अथवा कानून के साथ हस्तक्षेप करने का मौका मिल जाता है। मीडिया काउंसिल की मांग लंबे समय से लंबित है और अधिकांश राजनीतिक दल मीडिया पर कुछ नियंत्रण/निगरानी रखने के इच्छुक रहते हैं | राज्यों में तो बराबर दबाव बनते रहते हैं। दूसरा पहलू ज्यादा गंभीर है। यदि न्यूज बिजनेस/चैनल्स अपनी विश्वसनीयता खो देते हैं और आपस में लड़ने लगते हैं और पुलिस या रेवेन्यू विभाग निवेशकों अथवा एडवर्टाइजर्स से पूछताछ शुरू कर देते हैं तो उन्हें बचाने कौन आएगा? यह आत्मविश्लेषण का समय है। आत्म अनुशासन का मतलब आचार संहिता यानी ‘लक्ष्मण रेखा’ से है। हमें टीआरपी के लिए नए सिस्टम की जरूरत है। यह न सिर्फ भारतीय मीडिया की प्रतिष्ठा को सुधारने और उसे बढ़ाने में मददगार साबित होगा, बल्कि भारतीय लोकतंत्र और इसके भविष्य को मजबूत बनाएगा।


Popular posts from this blog

देवदास: लेखक रचित कल्पित पात्र या स्वयं लेखक

नई चुनौतियों के कारण बदल रहा है भारतीय सिनेमा

‘कम्युनिकेशन टुडे’ की स्वर्ण जयंती वेबिनार में इस बार ‘खबर लहरिया’ पर चर्चा