फेक टीआरपी का काला धंधा


करोड़ों के विज्ञापनों को हासिल करने के फेर में टीवी चैनल अपनी टीआरपी को बढ़ाने के लिए किसी भी सीमा तक जाने को तत्पर रहते हैं। इसी फेर मंे रिश्वत देकर टीआरपी को मैन्युपुलेट करने का काम भी चैनल करने लगते हैं और ऐसा नहीं है कि कोई पहली बार ऐसा हुआ है। पहले भी ऐसा होता रहा है, पर इतना जरूर है कि पहली बार फेक टीआरपी का मामला पुलिस में दर्ज किया गया है और कुछ बड़े चैनल इसमें बेनकाब हुए हैं।
देश का मीडिया उद्योग इस समय जिस भयावह दौर से गुजर रहा है, उसकी कल्पना न तो मीडिया से जुड़े लोगों ने की थी और न ही आम लोगों ने। खास तौर पर इलैक्ट्राॅनिक मीडिया को लेकर प्रतिदिन जो नए कारनामे सामने आ रहे हैं, उससे अब लोग यही समझने लगे हैं कि देश और दुनिया को सच्चाई का आईना दिखाने का दावा करने वाले मीडिया का दामन भी पाक साफ नहीं है। टेलीविजन रेटिंग प्वाइंट यानी टीआरपी के खेल में उलझे इलैक्ट्राॅनिक मीडिया की परतें अब एक-एक करके उधेड़ी जा रही हैं और मुबंई के पुलिस कमिश्नर के इस बयान ने आग में घी का काम किया है कि रिपब्लिक भारत समेत देश के बड़े मीडिया नेटवर्क पैसे देकर अपनी टीआरपी बढ़ाने का प्रयास करते रहे हैं। जाहिर है कि इस आग की तपिश से दूसरे चैनल भी नहीं बच पा रहे हैं और शायद यही कारण है कि तमाम बड़े टीवी पत्रकारों के लिए अपना चेहरा बचाना भी मुश्किल हो रहा है।



शायद ही किसी ने सोचा होगा कि देश में सबसे अधिक देखे जाने का दम भरने वाले मीडिया संस्थान पर कभी ऐसा आरोप भी लग सकता है कि उसने पैसे देकर अपनी टीआरपी को नंबर एक पर पहुंचा दिया। लेकिन मुंबई पुलिस कमिश्नर ने जब सबूतों के साथ यह बात कही, तो यकीन नहीं करने का कोई कारण भी नजर नहीं आ रहा था। हालांकि इस मामले को लोगों ने एक खास एंगल से भी देखा और ऐसा अनुमान भी लगाया गया कि अभिनेता सुशांतसिंह राजपूत की मौत के मामले में जब रिपब्लिक टीवी ने महाराष्ट्र सरकार और मुंबई पुलिस को कटघरे में खड़ा करने की मुहिम चलाई, तो काउंटर अटैक में सरकार और पुलिस ने फेक टीआरपी के हथियार का इस्तेमाल किया।
ज्यादातर लोग जानते होंगे कि टीआरपी यानी टेलीविजन रेटिंग पॉइंट, यह वो पैमाना है जिसके जरिए यह पता लगाया जाता है कि किसी टीवी चैनल पर चलने वाले शो को कितने लोगों ने और कितने समय तक देखा। सीधा सा मतलब कि यह लोकप्रियता का पैमाना है। टीआरपी का गणित निकालने का काम अभी भारत में बीएआरसी इंडिया (ब्रॉडकास्ट आडियंस रिसर्च काउंसिल इंडिया) नामक संस्था करती है। टीआरपी, विज्ञापनदाताओं और इन्वेस्टर्स के लिए बहुत उपयोगी होती है क्योंकि इसी से उन्हें जनता की पसंद-नापसंद का पता चलता है। एक चैनल या प्रोग्राम की टीआरपी के जरिए ही विज्ञापनदाता को समझ आएगा कि उसे अपना विज्ञापन कहां देना है और इन्वेस्टर यह निर्णय करेगा कि उसे अपने पैसे कहां लगाने हैं। टीआरपी को मापने के लिए कुछ जगहों पर पीपल्स मीटर लगाए जाते हैं। इसे ऐसे समझ सकते हंै कि कुछ हजार दर्शकों का नमूने के रूप में सर्वे किया जाता है और इन्हीं दर्शकों के आधार पर यह मान लिया जाता है कि देश के टीवी दर्शक क्या देखना पसंद करते हैं।
टीआरपी के पैमाने पर जो चैनल दौड़ में आगे होते हैं, जाहिर है कि विज्ञापनों के बाजार में उन चैनलों की अहमियत ज्यादा होती है अर्थात उन्हें अधिक विज्ञापन हासिल होते हैं। इसी क्रम में रिपब्लिक टीवी और दो अन्य टेलीविजन चैनलों पर उच्च विज्ञापन दरों को प्राप्त करने के लिए रेटिंग्स की हेरफेर करने का आरोप मुंबई पुलिस ने लगाया है। मुंबई पुलिस का कहना है कि न्यूज ट्रेंड की हेरफेर के एक बड़े विश्लेषण के दौरान रेटिंग्स में गड़बड़ी पाई गई और पाया गया कि एक ‘झूठा नैरेटिव‘ सुशांत सिंह राजपूत की मौत की जांच के बारे में फैलाया गया। पुलिस ने कहा कि कई घरों को रिश्वत देकर शामिल किया गया था। एजेंसियां इन घरों पर निगरानी रखती थीं। बाद में रेटिंग जारी किया करतीं थीं। मुंबई में 20,000 घरों की निगरानी की जाती रही। और अब अपनी शुरुआती जांच के बाद मुंबई पुलिस ने साफ तौर पर कहा है कि कुछ बड़े चैनल टीआरपी को अपने पक्ष मंे करने के लिए लोगों को हर महीने रुपए देते थे।
फेक टीआरपी के इस केस में मुुंबई पुलिस ने आपराधिक साजिश और धोखाधड़ी का मामला दर्ज करते हुए दो टीवी चैनलों - फकत मराठी और बॉक्स सिनेमा के मालिकों को गिरफ्तार कर लिया है। साथ ही रिपब्लिक टीवी के निदेशकों और प्रमोटरों के खिलाफ टीवी रेटिंग की धोखाधड़ी के लिए जांच की जा रही है। टीआरपी के लिए 2000 मीटर्स मुंबई में इंस्टॉल किए गए हैं। इनकी देखरेख हंसा नाम की कंपनी कर रही थी। इसी एंजेंसी की मार्फत टीआरपी में हेराफेरी की जा रही थी। आप देखें या ना देखें, बस आप किसी विशेष चैनल को आॅन रखिएगा, ऐसा कहा जाता था।
आज टीवी देखने वाले ज्यादातर दर्शक भी यह बात जानते हैं कि टेलीविजन विज्ञापन इंडस्ट्री करीब 30 से 40 हजार करोड़ रुपए की है। हर चैनल लगातार इसी कोशिश में रहता है कि अधिकांश विज्ञापन उसे ही मिले। विज्ञापन जाारी करने वाली एजेंसियां विज्ञापन की दर टीआरपी रेट के आधार पर तय करती हंै। किस चैनल को किस हिसाब से विज्ञापन मिलेगा, यह टीआरपी के आधार पर ही तय किया जाता है। अगर टीआरपी में बदलाव होता है तो इससे रेवेन्यू पर असर पड़ता है। कुछ चैनलों को इससे फायदा होता है और कुछ को इससे नुकसान। जाहिर है कि करोड़ों के विज्ञापनों को हासिल करने के फेर में टीवी चैनल अपनी टीआरपी को बढ़ाने के लिए किसी भी सीमा तक जाने को तत्पर रहते हैं। इसी फेर मंे रिश्वत देकर टीआरपी को मैन्युपुलेट करने का काम भी चैनल करने लगते हैं और ऐसा नहीं है कि कोई पहली बार ऐसा हुआ है। पहले भी ऐसा होता रहा है, पर इतना जरूर है कि पहली बार फेक टीआरपी का मामला पुलिस में दर्ज किया गया है और कुछ बड़े चैनल इसमें बेनकाब हुए हैं। आने वाले दिनों में यह देखना दिलचस्प होगा कि टीआरपी का यह मामला आगे क्या गुल खिलाता है।


 


 


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