खिलाफ लिखने से पहले सौ बार सोच लीजिए!

किसी भी लोकतांत्रिक देश के लिए इससे बड़ी चिंता की बात नहीं हो सकती कि वहां का मीडिया डर और खौफ के साये में काम करे। हाल के दौर में हमारे देश में अनेक ऐसी घटनाएं सामने आई हैं, जब मीडिया प्रतिनिधियों पर जानलेवा हमले हुए हैं और उन्हें काम करने से रोका गया है। जब भी किसी पत्रकार ने सरकारी तंत्र की पोल खोलने वाली कोई रिपोर्ट लिखी है, तो उसके मन में यह डर जरूर रहता है कि कहीं अपनी खबर की वजह से वह किसी मुश्किल में नहीं पड़ जाए। समस्या इतनी चिंताजनक हो गई है कि मीडिया की स्वतंत्रता के लिए काम करने वाले दो अंतरराष्ट्रीय संगठनों ने इस बारे में प्रधानमंत्री को पत्र लिखा।


बिहार में विधानसभा चुनाव की हलचल और कोरोना महामारी की वैक्सीन से जुड़ी तमाम खबरों के बीच देश के मीडया ने पिछले हफ्ते यह खबर लगभग अनदेखी कर दी कि दो अंतरराष्ट्रीय मीडिया संगठनों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिख कर भारत में पत्रकारों के खिलाफ राजद्रोह और दूसरे आरोप लगा कर प्रेस की स्वतंत्रता का गला घोंटे जाने के प्रति गहरी चिंता जताई है। इन संगठनों ने अपनी चिट्ठी में इस तरह के पचास से अधिक मामलों का जिक्र भी किया है और कहा है कि देशभर में मीडिया प्रतिनिधि बेहद दबाव में काम कर रहे हैं, क्योंकि उन्हें इस बात का डर है कि न जाने उनकी किस रिपोर्ट को सरकार गलत ठहरा दे और उनके खिलाफ मुकदमा दर्ज कर दिया जाए। 
किसी भी लोकतांत्रिक देश के लिए और खास तौर से हमारा देश जो दुनिया में सबसे बड़ा लोकतंत्र कहलाता है, उसके लिए इससे बड़ी चिंता की बात नहीं हो सकती कि मीडिया डर और खौफ के साये में काम करे। हाल के दौर में अनेक ऐसी घटनाएं सामने आई हैं, जब मीडिया प्रतिनिधियों पर जानलेवा हमले हुए हैं और उन्हें काम करने से रोका गया है। जब भी किसी पत्रकार ने सरकारी तंत्र की पोल खोलने वाली कोई रिपोर्ट लिखी है, तो उसके मन में यह डर जरूर रहा होगा कि कहीं अपनी खबर की वजह से वह किसी मुश्किल में नहीं पड़ जाए। समस्या इतनी चिंताजनक हो गई है कि मीडिया की स्वतंत्रता के लिए काम करने वाले दो अंतरराष्ट्रीय संगठनों ने इस बारे में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिखा।



देश में मीडिया के खिलाफ उठाए जाने वाले दमनकारी कदमों के बारे में प्रधानमंत्री को पत्र लिखने वाले ये दो संगठन हैं- ऑस्ट्रिया स्थित इंटरनेशनल प्रेस इंस्टीट्यूट (आईपीआई) और बेल्जियम-स्थित इंटरनेशनल फेडरेशन ऑफ जर्नलिस्ट्स (आईएफजे)। इन संगठनों ने पत्र में प्रधानमंत्री को लिखा है कि पिछले कुछ महीनों में देश के अलग-अलग हिस्सों में कई पत्रकारों के खिलाफ भारतीय दंड संहिता की धारा 124ए के तहत राजद्रोह का आरोप लगा कर मामले दर्ज किए गए हैं, जिसमें तीन साल जेल की सजा का प्रावधान है।
संगठनों ने कहा है कि पत्रकारों के खिलाफ राजद्रोह और दूसरे आरोप लगा कर प्रेस की स्वतंत्रता का गला घोंटा जा रहा है और यह बहुत ही विचलित करने वाली बात है। संगठनों ने यह भी कहा है कि कोरोना वायरस महामारी के फैलने के बाद इस तरह के मामलों की संख्या बढ़ गई है, जो कि यह दिखाता है कि महामारी की रोकथाम करने में सरकारों की कमियों को उजागर करने वालों की आवाज को महामारी का ही बहाना बना के दबाया जा रहा है।
देश का हर समझदार नागरिक इस सच्चाई से वाकिफ है कि प्रेस की स्वतंत्रता को कुचलने या उसकी आवाज को दबाने की कोशिश तब की जाती है, जब सरकारी तंत्र को लगता है कि मीडिया उसकी हर बात का समर्थन नहीं कर रहा है (यहां सरकारी तंत्र से हमारा आशय सत्ता में बैठे राजनीतिक लोगों से भी है)। पिछले कुछ वर्षों में इस तरह का माहौल बना है कि सरकारी तंत्र सिर्फ प्रशंसात्मक खबरों को पसंद कर रहा है और सरकारी कामकाज की आलोचना करने वाले मीडिया प्रतिनिधियों को सरकार का दुश्मन समझा जाने लगा है। चाहे-अनचाहे एक ऐसा सिस्टम विकसित हो गया है, जिसमें असहमति के लिए कोई स्थान नहीं है। या तो आप सरकार का साथ दीजिए या फिर कानूनी कार्रवाई का सामना करने के लिए तैयार रहिए। असहमति के प्रति यह अलगाव दरअसल देश के उस लोकतांत्रिक ढांचे को ही कमजोर कर रहा है, जिसमें मीडिया काम करता है।
पिछले दिनों अहमदाबाद के पत्रकार धवल पटेल के खिलाफ राजद्रोह के आरोप में एफआईआर दर्ज की और उन्हें हवालात में भी रखा। उनकी ‘गलती‘ इतनी सी थी कि उन्होंने अपनी वेबसाइट ‘फेस ऑफ नेशन‘ पर यह खबर पोस्ट कर दी कि गुजरात में कोरोना वायरस महामारी की रोकथाम में हुई खामियों की वजह से भारतीय जनता पार्टी उन्हें मुख्यमंत्री पद से हटा सकती है। इस तरह की खबरें आए दिन मीडिया में आती रहती हैं और कभी ऐसा नहीं हुआ कि ऐसी किसी खबर को लेकर पत्रकार के खिलाफ राजद्रोह का मामला दर्ज कर दिया जाए। लेकिन धवल पटेल के साथ यही हुआ। हालांकि बाद में हाई कोर्ट से पटेल को जमानत तो मिल गई, लेकिन सरकारी तंत्र यह संदेश देने में कामयाब रहा कि अगर मीडिया ने सरकार को परेशानी में डालने वाली कोई खबर या रिपोर्ट पेश की, तो फिर उत्पीड़न या बदले की कार्रवाई के लिए तैयार रहना होगा।
हाल ही केरल सरकार ने एक ऐसा अध्यादेश लाने का संकेत दिया है, जिसके तहत मानहानिकारक सामग्री छापने वालों को पांच साल की जेल हो सकती है। अंदेशा है कि इस अध्यादेश से मीडिया की और आम लोगों की अभिव्यक्ति की आजादी का हनन होगा। केरल सरकार अपने पुलिस अधिनियम में संशोधन करते हुए उसमें एक और अनुच्छेद 118 (ए) जोड़ना चाहती है, जिसके तहत यदि कोई किसी भी व्यक्ति को धमकाने, उसका अपमान करने या उसकी प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंचाने के इरादे से किसी सामग्री की रचना करेगा, छापेगा या उसे किसी भी माध्यम से आगे फैलाएगा उसे पांच साल जेल या 10,000 रुपए जुर्माना या दोनों की सजा हो सकती है। केरल सरकार के अनुसार यह अध्यादेश सोशल मीडिया पर नफरत फैलाने वाली सामग्री और इंटरनेट के जरिए लोगों पर हमलों से लड़ने के लिए लाया जा रहा है। लेकिन अध्यादेश के आलोचकों का कहना है कि इसकी शब्दावली ऐसी रखी गई है कि इसकी परिधि में सिर्फ सोशल मीडिया नहीं, बल्कि प्रिंट और विजुअल मीडिया और यहां तक कि पोस्टर और होर्डिंग भी आ जाएंगे। जाहिर है कि पुलिस इस संशोधन का इस्तेमाल उन पत्रकारों को गिरफ्तार करने के लिए कर सकती है, जो सरकार की खामियां उजागर करते हैं।


 


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