टीवी चैनल्स पर अफवाहों, फर्जी खबरों और झूठ का कारोबार

आम तौर पर जब मीडिया किसी मामले में अनावश्यक सनसनी फैलाने की कोशिश करता है और तथ्यों को दरकिनार करते हुए अफवाहों और झूठ को ही सच बताने का प्रयास करता है, तो इसे ‘क्लिकबैट पत्रकारिता’ का नाम दिया जाता है। कहने की जरूरत नहीं है कि सुशांत की मौत के मामले में टीवी चैनलों ने ‘क्लिकबैट पत्रकारिता’का ही सहारा लिया।


देशभर में कोरोनावायरस से संबंधित त्रासद आंकड़ों के बीच सुशांतसिंह राजपूत की मौत के मामले के कवरेज को लेकर भारतीय इलेक्ट्रोनिक मीडिया का आकलन किया जाए, तो तीन बातें ही सामने आती हैं- अफवाहें, फर्जी खबरें और झूठ। इस पूरे प्रकरण में सबसे दिलचस्प बात यह है कि मुख्यधारा का प्रिंट मीडिया पूरी तरह संयत और संतुलित बना रहा और उसने मामले से संबंधित सिर्फ उन्हीं खबरों को रिपोर्ट किया, जो पुलिस और जांच एजेंसियों से उसे हासिल हुईं। दूसरी तरफ तमाम टीवी चैनल एक बार फिर सीधे-सीधे जज की भूमिका में आ गए और वे लगातार मनगढ़ंत रिपोर्टों का प्रसारण करते रहे। पुलिस और जांच एजेंसियों से हासिल खबरों को टीवी चैनलों ने किनारे कर दिया और लगभग हर चैनल अपनी ओर से अलग ही ट्रायल करता रहा। एक तरफ ईडी, सीबीआई व नारकोटिक्स ब्यूरो जैसी संस्थाएं जांच में जुटी हैं, दूसरी तरफ देश का मीडिया अपने स्तर पर ही इस मामले का ट्रायल करता रहा। अंततः प्रेस काउंसिल को भी कहना पड़ा कि सुशांत की आकस्मिक मृत्यु पर मीडिया अपना ट्रायल न चलाए, क्योंकि ऐसे ट्रायल न्याय की प्रक्रिया में बाधा पैदा करते हैं।



प्रेस काउंसिल का मानना है कि मीडिया ने इस केस के नायक-खलनायक पहले ही तय कर दिए हैं। मीडिया का एक बड़ा हिस्सा हर रोज नए-नए मुकदमे चलाकर पब्लिक को उकसाता है। मीडिया पर सहज यकीन करने वाली जनता मीडिया के पूर्वाग्रह से ग्रस्त हो जाती है और न्याय की स्वतंत्र प्रक्रिया को संदिग्ध मानने लगती है। यह किसी मानी में ठीक नहीं। इसीलिए काउंसिल का मशविरा है कि मीडिया अपने ट्रायल सर्कस से बाज आए।


भले ही देर से ही सही, लेकिन प्रोड्यूसर्स गिल्ड ऑफ इंडिया ने भी सुशांत के मामले में  जारी मीडिया ट्रायल पर एतराज जताया और कहा कि इस मामले में मीडिया कवरेज से यह धारणा बन रही है कि फिल्म उद्योग नए लोगों के काम करने के लिए भयावह जगह है। बॉलीवुड में आने की आकांक्षा रखने वाले युवा निश्चित तौर पर इस तरह की सनसनीखेज पत्रकारिता से गुमराह हो सकते हैं। गिल्ड ने सुशांत के मामले को लेकर फिल्म उद्योग के बारे में की जा रही टीका-टिप्पणी को ‘क्लिकबैट पत्रकारिता’ करार दिया। आम तौर पर जब मीडिया किसी मामले में अनावश्यक सनसनी फैलाने की कोशिश करता है और तथ्यों को दरकिनार करते हुए अफवाहों और झूठ को ही सच बताने का प्रयास करता है, तो इसे ‘क्लिकबैट पत्रकारिता’ का नाम दिया जाता है। कहने की जरूरत नहीं है कि सुशांत की मौत के मामले में टीवी चैनलों ने ‘क्लिकबैट पत्रकारिता’का ही सहारा लिया।


जैसा कि प्रोड्यूसर्स गिल्ड ऑफ इंडिया के प्रमुख सिद्धार्थ रॉय कपूर कहते हैं, ‘‘ज्यादातर टीवी चैनलों ने इस मामले को विज्ञापन राजस्व और रेटिंग से जोड़ लिया और वे यह भूल गए कि रेवेन्यू से बढ़कर ‘सामान्य मानव शालीनता है, जिसका पालन हरेक मीडियाकर्मी को करना चाहिए। इस मामले की मीडिया कवरेज में बॉलीवुड को एक ऐसे स्थान के रूप में पेश किया जा रहा है, जहां अपराध है और ड्रग्स का सेवन किया जाता है। यह कहानी मीडिया इंडस्ट्री के लिए अपनी रेटिंग और रीडरशिप बढ़ाने के लिए जरूरी हो सकती है, लेकिन यह सच नहीं है। विज्ञापन राजस्व और रेटिंग की तुलना में कुछ और चीजें महत्वपूर्ण हैं -जैसे कि सामान्य मानव शालीनता। यह बहुत जरूरी है कि मीडिया भी थोड़ी-बहुत मानवता दिखाए।''


सुशांत गत 14 जून को अपने घर में मृत मिले थे। इस मामले में अब सीबीआई, प्रवर्तन निदेशालय और नार्कोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो जैसी तीन-तीन एजेंसियां विभिन्न पहलुओं की जांच कर रही हैं। लेकिन मीडिया के एक समूह ने इस पूरे मामले को भारतीय फिल्म उद्योग पर हमला करने का एक सुनहरा अवसर समझा और इस समूह ने एक होनहार युवा कलाकार की दुखद मृत्यु का इस्तेमाल फिल्म उद्योग और उसके सदस्यों को बदनाम करने के लिए किया है। एक लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए यह प्रवृत्ति बहुत खतरनाक हो सकती है, क्योंकि आज भी बड़ी संख्या में लोग मीडिया पर भरोसा करते हैं। उसकी कही बातों को सच मानते हैं, तो ऐसे में मीडिया की जिम्मेदारी और बढ़ जाती है। लेकिन टीआरपी का पीछा करता और राजनीति या कारोबार से प्रेरित अपने मालिकों का हुक्म बजाता भारतीय मीडिया आज भी इस समझ को दर्शा नहीं रहा है। इस तरह के मामलों में कहीं न कहीं दर्शकों और पाठकों को भी जिम्मेदार माना जाना चाहिए। हालांकि टीवी चैनलों पर सनसनीखेज खबरों के लिए सीधे-सीधे दर्शक दोषी नहीं हैं, लेकिन हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि मीडिया उसी समाज का प्रतिनिधित्व करता है, जो इसका उपभोग करता है।


इस मामले के संदर्भ में पिछले दिनों सोशल मीडिया पर एक अहम टिप्पणी पढ़ी। आप भी पढ़िए- दुनिया में अदालतें इसलिए बनाई गई हैं, ताकि वहां सबको इंसाफ मिले। लेकिन जब न्यायालय से पहले ही समाज न्याय करने लग जाए, तो समझ जाइए कि सभ्य समाज के खत्म होने की उलटी गिनती शुरू हो गई है।


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