पत्रकार हो रहे हैं कोरोना के शिकार, जान बचाएं या नौकरी?

नई दिल्ली। भारत में पत्रकार लगातार कोरोना का शिकार हो रहे हैं। खतरा सिर्फ वायरस तक सीमित नहीं है। पुलिस के डंडे, मुकदमे और नौकरी जाने का डर भी है। पिछले दो दिनों में कम से कम दो पत्रकारों की कोरोना से मौत हो गई। पहले मंगलवार को इंडिया टुडे ग्रुप के नीलांशु शुक्ला की मौत की खबर आई और फिर बुधवार को समाचार एजेंसी पीटीआई के एक पत्रकार अमृत मोहन का निधन हो गया। ये दोनों ही पत्रकार लखनऊ में कार्यरत थे। फिर पुणे में टीवी – 9 मराठी के पत्रकार पांडुरंग रायकर की कोरोना से मौत हो गई। इससे पहले भी कोरोना से पत्रकारों की मौत की खबर आती रही हैं। जून में एक तेलगू टीवी चैनल के एक पत्रकार की मौत हो गई थी। कई पत्रकारों के लगातार कोरोना पॉजिटिव होने की खबर आ रही है।



डीडब्ल्यू हिन्दी पर हृदयेश जोशी की एक रिपोर्ट के अनुसार कोरोना महामारी के साथ ही पत्रकारिता का तरीका बदल गया है।पत्रकारों की सीमाएं तय हो गई। ब्रॉडकास्ट (टीवी) या वीडियो जर्नलिज्म कर रहे पत्रकारों के लिए व्यावहारिक कठिनाई थोड़ा अधिक थी। भीड़ में जाना, लोगों से मिलना और बात करना। सामाजिक दूरी बनाते हुए पत्रकारों के लिए रिपोर्टिंग आसान नहीं थी। एनडीटीवी इंडिया के पत्रकार रवीश रंजन शुक्ला ने लॉकडाउन की शुरुआत से दिल्ली से लेकर यूपी और बिहार में कई दिनों तक रिपोर्टिंग की। कई बार उन्हें कैमरामैन मयस्सर होता तो कई बार वह अकेले सेल्फी स्टिक और मोबाइल से जर्नलिज्म कर रहे थे।


शुक्ला कहते हैं कि कोविड संक्रमण से बचना हर वक्त उनके हाथ में नहीं था। उन्होंने बताया, "सामाजिक दूरी बनाना इसलिए मुश्किल था क्योंकि यह एकतरफा कोशिश से नहीं हो सकता। मिसाल के तौर पर प्रवासी मजदूरों की समस्या का ही मामला लीजिए। सड़क पर भटक रहे मजदूरों को संक्रमण का डर नहीं था बल्कि उनमें अपनी समस्या को बताने की उत्कंठा कहीं अधिक थी। तमाम एहतियात के बाद मुझे हमेशा यह एहसास रहा कि फिजिकल डिस्टेंसिग का नियम टूट रहा है। हम दो या तीन लोगों की टीम में काम कर रहे थे और हममें से हर किसी ने पूरे दिन सामाजिक दूरी के नियमों का पालन किया है यह कहना मुश्किल था। इसलिए मैंने पिछले 4-5 महीनों में रिपोर्टिंग दो बार अपना कोविड टेस्ट कराया।”


वॉयस ऑफ अमेरिका की पत्रकार रितुल जोशी भी शुक्ला की बात से सहमत हैं। रितुल दिल्ली के अलग अलग इलाकों से मजदूरों की समस्या पर की गई रिपोर्ट को याद करते हुए कहती हैं, "कैमरा ऑन होते ही हर तरफ से मजदूर घेर लेते थे। उनकी कहानियां इतनी दर्दनाक होती थीं और आधे लोग बोलते बोलते रो पड़ते थे। ऐसे में उनसे यह कह पाना कि, भैया तीन फीट की दूरी रखिए, कम से कम मेरे लिए तो मुमकिन नहीं था। नोएडा की जिस झुग्गी बस्ती में मैं गई वहां एक भी आदमी के मुंह पर मास्क नहीं था। लेकिन आधे से ज्यादा लोगों के बदन पर कपड़े भी पूरे नहीं थे। उनसे मास्क, साबुन और सैनिटाइजर की बात करना भी किसी भद्दे मजाक जैसा था।”


संस्थानों ने इस दौरान "वर्क फ्रॉम होम” को ही बढ़ावा दिया। जो रिपोर्टर, कैमरामैन या फोटोग्राफर फील्ड में थे उन्हें ऑफिस न आने को कहा जा रहा था। शिफ्ट की कड़ी पाबंदी के साथ दफ्तर में काम कर रहे लोगों के बीच आइसोलेशन बनाया गया। यानी दफ्तर में दो शिफ्टों के बीच कोई संपर्क नहीं। इंडियन एक्सप्रेस के पत्रकार दीपांकर घोष कहते हैं कि सामाजिक दूरी और संसाधनों की सीमा को देखते हुए वह एक ही चक्कर में मध्यप्रदेश, राजस्थान और हरियाणा का दौरा कर दिल्ली लौटे और इसमें उन्हें 36 घंटे का वक्त लगा। घोष ने इस तरह प्रवासियों की समस्या पर रपट लिखी। लेकिन फिर वो 40 दिन के लिए बिहार गए तो वहां उनके लिए सोशल डिस्टेंसिंग के सारे नियमों का पालन करना संभव नहीं था।


टीवी जर्नलिस्ट एसोसिएशन के अध्यक्ष और न्यूज-24 के असिस्टेंट एडिटर विनोद जगदाले कहते हैं, "यह बात बहुत सही है कि कोई भी आदमी बीमार हो, चाहे उसे कोविड हो या कुछ और तकलीफ हो, वह काम पर जा रहा है क्योंकि हर संस्थान में अभी कटौती चल रही है। इसलिए हर कोई सोचता है कि मैं नहीं जाऊंगा या जाऊंगी तो कोई दूसरा मेरी जगह ले लेगा। हर संस्थान में यह हो रहा है कि जो अभी नहीं आ पा रहे हैं उन्हें बाय-बाय करने का ठान लिया है।”


लेकिन कुछ दूसरे खासतौर से विदेशी संस्थानों के लिए काम कर रहे पत्रकारों पर ऐसा दबाव नहीं था। वॉयस ऑफ अमेरिका की रितुल जोशी का कहना है कि उन्होंने लॉकडाउन के दौरान प्रवासी मजदूरों के पलायन, दिहाड़ी मजदूरों की बदहाली, अस्पतालों में बदइंतजामी से लेकर इलाज और टेस्ट के लिए दर दर भटकते लोगों पर तमाम वीडियो रिपोर्ट्स कीं लेकिन संस्थान ने उन पर कभी कोई दबाव नहीं डाला।


उधर यूपी और बिहार का दौरा कर लौटीं बीबीसी हिन्दी की पत्रकार प्रियंका दुबे के मुताबिक उन पर भी संस्थान की ओर से कभी कोई दबाव नहीं रहा। वह कहती हैं रिपोर्टिंग के दौरान संक्रमण से बचने की गारंटी तो नहीं होती लेकिन उनके संस्थान ने सुरक्षा के लिए सख्त प्रोटोकॉल बनाया था। दुबे ने बताया, "दस दिन की बिहार-बाढ़ यात्रा के लिए मुझे अपने दफ्तर से 25 जोड़ी ग्लव्ज, 30 जोड़ी मास्क, 6 फेस शील्ड, 2 पीपीई किट, 5 लीटर सैनिटाईजर की कुप्पी, 2 रेनकोट, 2 बड़े छाते और एक जोड़ी गम बूट्स दिए गए थे। हमें हर रोज नया मास्क लगाने, नए दस्ताने पहनने, कार को सैनिटाइज करने और सोशल डिसटेंसिंग का पालन करने के निर्देश थे।”


कोरोना महामारी के दौरान पुलिस द्वारा पत्रकारों के दमन के कई मामले भी सामने आए। खासतौर से छोटे शहरों और संस्थानों के सहाफियों पर। बनारस के अखबार जनसंदेश के संपादक विजय विनीत कहते हैं कि लॉकडाउन के बाद मार्च में उन्होंने पास के गांव में मुसहर समुदाय द्वारा घास की रोटी खाए जाने की खबर छापी तो प्रशासन ने उन्हें धमकियां दी और खंडन छापने को कहा। विनीत कहते हैं कि उन्होंने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के जानकारों से इस विषय में बात कर ली थी और जो झाड़ उन्होंने दिखाया उसे बीएचयू के विशेषज्ञों ने भी घास ही बताया और कहा कि इसे खाने से बीमारियां हो सकती हैं।


 


 


Popular posts from this blog

देवदास: लेखक रचित कल्पित पात्र या स्वयं लेखक

नई चुनौतियों के कारण बदल रहा है भारतीय सिनेमा

‘कम्युनिकेशन टुडे’ की स्वर्ण जयंती वेबिनार में इस बार ‘खबर लहरिया’ पर चर्चा