प्रशांत भूषण के मामले को लेकर अवमानना क़ानून भी कठघरे में

नई दिल्ली। उच्चतम न्यायालय ने जाने-माने वकील प्रशांत भूषण के दो ट्वीट्स को लेकर उन्हें अदालत की अवमानना का दोषी माना है और अब कोर्ट उन्हें सजा सुना सकता है। अवमानना के मामले में देश की शीर्ष अदालत उन्हें छह महीने तक की जेल की सजा जुर्माने के साथ या इसके बगैर भी सुना सकती है। कानून में यह भी प्रावधान है कि अभियुक्त के माफी मांगने पर अदालत चाहे, तो उसे माफ कर सकती है। गुरुवार को इस मामले की सुनवाई के दौरान प्रशांत भूषण माफी मांगने से इनकार कर चुके हैं। इस बीच अवमानना के इस मामले को लेकर जागरूक तबके के बीच एक नई बहस छिड़ गई है और अब अवमानना क़ानून के औचित्य को लेकर भी सवाल उठने लगे हैं। 



जहां कुछ पूर्व न्यायाधीशों, पूर्व नौकरशाहों, वकीलों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने सुप्रीम कोर्ट से अनुरोध किया था कि "सर्वोच्च न्यायालय  की गरिमा को देखते हुए प्रशांत भूषण के ख़िलाफ़ अवमाना के मामले वापस लिए जाएं।" तो एक दूसरे समूह ने भारत के राष्ट्रपति को पत्र लिखकर संस्थानों की गरिमा को बचाने का अनुरोध किया था। भूषण के पक्ष में जारी किए गए बयान में जिन 131 लोगों के हस्ताक्षर थे। उनमें सुप्रीम कोर्ट के ही पूर्व चीफ़ जस्टिस जस्ती चेलामेस्वर, जस्टिस मदन बी लोकुर के अलावा दिल्ली हाई कोर्ट के पूर्व चीफ़ जस्टिस (रिटायर्ड) एपी शाह, पटना उच्च न्यायालय की जस्टिस (रिटायर्ड) अंजना प्रकाश शमिल हैं।


इनके अलावा हस्ताक्षर करने वालों में इतिहासकार रामचन्द्र गुहा, लेखक अरुंधति रॉय और वकील इंदिरा जयसिंह भी हैं। वहीं, राष्ट्रपति को पत्र भेजने वाले पूर्व न्यायाधीशों, वकीलों, पूर्व नौकरशाहों और सामजिक कार्यकर्ताओं के एक दूसरे समूह का कहना था कि कुछ प्रतिष्ठित लोग संसद और चुनाव आयोग जैसी भारत की पवित्र संस्थाओं को दुनिया के सामने बदनाम करने का कोई मौक़ा नहीं छोड़ना चाहते हैं। अब सुप्रीम कोर्ट भी उनके निशाने पर है।


राष्ट्रपति को भेजी गई इस चिट्ठी पर हस्ताक्षर करने वालों में राजस्थान उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश अनिल देव सिंह, सिक्किम हाई कोर्ट के पूर्व चीफ़ जस्टिस प्रमोद कोहली के अलावा 15 रिटायर्ड जज शामिल हैं। कुल मिलाकर 174 लोगों के हस्ताक्षर वाले इस पत्र में कहा गया है कि सुप्रीम कोर्ट में अवमाना का मामला पूरी तरह से प्रशांत भूषण और अदालत के बीच का मामला है। इसपर सार्वजनिक रूप से टिप्पणियाँ कर सुप्रीम कोर्ट के गौरव को हल्का दिखाना है।


सेंट्रल एडमिन्सट्रेटिव ट्रिब्यूनल (सीएटी) के अध्यक्ष और सिक्किम हाई कोर्ट के चीफ़ जस्टिस रह चुके प्रमोद कोहली कहते हैं, "अवमाना का क़ानून अगर ना हो तो कोई भी सुप्रीम कोर्ट या दूसरी अदालतों के फ़ैसलों को नहीं मानेगा।" उनका कहना है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले पूरे देश पर लागू होते हैं और सभी अदालतें और कार्यपालिका उन फैसलों को मानने के लिए बाध्य हैं। सुप्रीम कोर्ट की स्वतंत्रता, अखंडता और साख बनी रहे, ये सुनिश्चित करना सबके लिए ज़रूरी है।


लेकिन क़ानून के जानकारों की राय इस मुद्दे पर बंटी हुई है। दिल्ली हाई कोर्ट के रिटायर्ड चीफ़ जस्टिस एपी शाह कहते हैं, "ये अफ़सोसनाक है कि जज ऐसा सोचें कि आलोचना को दबाने से न्यायपालिका की प्रतिष्ठा बढ़ेगी।" शाह के अनुसार, अवमानना के क़ानून पर फिर से गौर किए जाने ज़रूरत तो है ही, साथ ही ये भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि इसका इस्तेमाल किसी तरह की आलोचना को रोकने के लिए नहीं किया जाए।


कानून के जानकारों को लगता है कि टकराव वहाँ होता है जब अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और संविधान के अनुच्छेद 129 आमने-सामने आ जाते हैं। संविधान के अनुसार हर नागरिक अपने विचार रखने या कहने के लिए स्वतंत्र है। लेकिन जब वो अदालत को लेकर टिप्पणी करे तो फिर अनुच्छेद 129 को भी ध्यान में रखे।


अदालत की अवमाना को लेकर भारत के न्यायिक हलकों में हमेशा से ही बहस होती रही। दिल्ली हाई कोर्ट के पूर्व चीफ़ जस्टिस (रिटायर्ड) एपी शाह के अनुसार अवमानना का क़ानून विश्व के कई देशों में और ख़ास तौर पर मज़बूत लोकतांत्रिक देशों में अप्रचलित होता जा रहा है। मिसाल के तौर पर अमरीका में अदालतों के फैसलों पर टिप्पणियाँ करना आम बात है और वो अवमानना के दायरे में नहीं आते हैं।


लेकिन पूर्व चीफ़ जस्टिस प्रमोद कोहली कहते हैं कि अगर अवमाना का कड़ा कानून नहीं हो तो फिर अदालतों का डर किसी को नहीं रहेगा। कार्यपालिका और विधायिका को मनमानी करने से रोकने का एक ही ज़रिया है और वो है न्यायपालिका। वो कहते हैं, "अगर कानून और अदालतों का डर ही ख़त्म हो जाए तो फिर अदालतें बेमानी हो जाएंगी और सब मनमानी करने लगेंगे। इस लिए अदालत और कानून का सम्मान सबके अंदर होना ज़रूरी है।"


कैसे वजूद में आया अवमानना क़ानून: साल 1949 की 27 मई को पहले इसे अनुच्छेद 108 के रूप में संविधान सभा में पेश किया गया। सहमति बनने के बाद इसे अनुच्छेद 129 के रूप में स्वीकार कर लिया गया।  इस अनुच्छेद के दो प्रमुख बिंदु थे- पहला कि सुप्रीम कोर्ट कहाँ स्थित होगा और दूसरा प्रमुख बिंदु था अवमानना। भीम राव आंबेडकर नए संविधान के लिए बनायी गई कमिटी के अध्यक्ष थे। चर्चा के दौरान कुछ सदस्यों ने अवमानना के मुद्दे पर सवाल उठाया था। उनका तर्क था कि अवमानना का मामला अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए रुकावट का काम करेगा।


आंबेडकर ने विस्तार से सुप्रीम कोर्ट को इस अनुच्छेद के ज़रिये अवमानना का स्वतः संज्ञान लेने के अधिकार की चर्चा करते हुए इसे ज़रूरी बताया था। मगर संविधान सभा के सदस्य आरके सिधवा का कहना था कि ये मान लेना कि जज इस क़ानून का इस्तेमाल विवेक से करेंगे, उचित नहीं होगा। उनका कहना था कि संविधान सभा में जो सदस्य पेशे से वकील हैं वो इस क़ानून का समर्थन कर रहे हैं जबकि वो भूल रहे हैं कि जज भी इंसान हैं और ग़लती कर सकते हैं। लेकिन आम सहमति बनी और अनुच्छेद 129 अस्तित्व में आ गया।


 


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