‘नंदन' और ‘कादम्बिनी' बंद, सोशल मीडिया पर पाठकों ने जताया अफसोस

नई दिल्ली। हिंदुस्तान टाइम्स समूह की दो विशिष्ट पत्रिकाएं ‘नंदन' और ‘कादम्बिनी' बंद कर दी गई हैं। ये दोनों पत्रिकाएं पिछले छह दशक से नियमित तौर पर प्रकाशित हो रही थीं, लेकिन बदलते माहौल के बीच हिंदुस्तान टाइम्स मैनेजमेंट ने इन पत्रिकाओं का प्रकाशन बंद करने का फैसला कर लिया। इन दोनों पत्रिकाओं के संपादकीय सहयोगियों से कंपनी ने इस्तीफा मांग लिया है। मीडिया रिपोर्टों के अनुसार इन्हें घर से बुलाकर इस्तीफा लिखवाया गया है। ‘कादम्बिनी' के संपादक राजीव कटारा थे, जबकि ‘नंदन' का संपादन दायित्व जयंती रंगनाथन के पास था।



‘नंदन' और ‘कादम्बिनी' के बंद होने की खबरें सामने आने के बाद सोशल मीडिया पर बड़ी संख्या में लोगों ने अफसोस जताया और यहां तक कहा कि हिंदुस्तान टाइम्स मैनेजमेंट की बजाय इसके लिए वे पाठक जिम्मेदार हैं, जिन्होंने पत्र-पत्रिकाओं से दूरी बना ली है। लोगों ने लिखा कि इसके दोषी हम सब है। हममें से कितने लोगों के घरों में कादम्बिनी और नंदन पढ़ी जाती है। हमनें अपनी भावी पीढ़ी को भी इनसे दूर रखा। फिर हम यह झूठ-मूठ का रोना क्यों रो रहे हैं। भारतीय साहित्य जगत के लिए बहुत ही दुखद है लेकिन हमें चिंतन करना होगा। कोई भी कारोबारी अपने घाटे वाले उपक्रमों को अधिक देर तक चलाकर नहीं रख सकता। हमें राजनीति से बाहर आकर सोचना होगा क्योंकि इसे भी कोरोना और मोदी से जोड़कर देखा जाएगा। यह स्थिति दो -चार  साल में पैदा नहीं हुई है।


लगभग चौबीस साल पहले टाइम्स ऑफ इंडिया समूह ने एक झटके में अपनी प्रतिष्ठित पत्रिका 'धर्मयुग' को सामान सहित नामालूम से चन्द्रप्रभा प्रकाशन को रातोंरात बेच दिया था।उसके साथ ही बंद हो चुके दिनमान,सारिका,पराग,इंद्रजाल कॉमिक्स आदि के अधिकार भी उसे सौंप दिए थे। बाद में धर्मयुग के 14 कर्मचारी बी यू जे की अगुवाई में अदालत गए । मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुँचा और उन्हें जीत मिली।


कोरोना के चलते मीडिया जगत में जहां इलेक्ट्रॉनिक व डिजिटल मीडिया के दर्शकों/पाठकों में बढ़ोतरी हुई है। वहीं प्रिंट मीडिया घोर संकट से जूझ रहा है। बड़े अखबारों की  भी हालत खराब है। कई एडिशन को एक साथ समेट कर निकाला जा रहा है। वहीं पाक्षिक और मासिक पत्रिकाओं की हालत और भी खराब है। पिछले 5 महीनों में कई पत्रिकाएं सिर्फ ईकॉपी में ही पीडीएफ फार्मेट में ही छप रहीं है। क्यों कि अभी भी दूर दराज के शहरों में इनकी पहुंच नहीं संभव है। 


जब पत्रिकाओं को विज्ञापन नहीं मिल रहा है, उनकी पहुंच पाठकों तक नहीं हो पा रही है । यही हाल रहा तो वर्षों से प्रकाशित पत्रिकाओं के दफ्तर पर ताला लगने के साथ ही पत्रिकाओं का प्रकाशन बंद हो जाएगा। इसके बाद इन पत्रिकाओं से जुड़े पत्रकार और हॉकरों के सामने रोजगार छिनने से रोजगार का संकट भी पैदा होगा। यह स्थिति स्वतंत्रत लेखन और पत्रकारिता से जुड़े लोगों के लिए और भी दुःखद होगा। क्योंकि फ्रीलांसर तो वैसे भी संपादकों के रहमोकरम कर पर जीते हैं।


कई मीडिया घरानों ने बड़ी संख्या में पत्रकारों और गैर पत्रकारों को नौकरी से निकाल दिया है। पत्र पत्रिकाओं को जिंदा रखने और उससे जुड़े लोगों के रोजगार को छिनने से बचाने के लिए आर्थिक पैकेज देने की कहीं कोई आहट  नहीं है। 


 


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