जोखिम उठाकर काम करने वाले मीडिया कर्मियों की ज़िन्दगी और नौकरी दोनों खतरे में
कोविड संक्रमण के ख़तरे के बीच भी देशभर के मीडियाकर्मी लगातार काम कर रहे हैं, लेकिन मीडिया संस्थानों की संवेदनहीनता का आलम यह है कि जोखिम उठाकर काम रहे इन पत्रकारों को किसी तरह का बीमा या आर्थिक सुरक्षा देना तो दूर, उन्हें बिना कारण बताए नौकरी से निकाला जा रहा है।
नई दिल्ली। दिल्ली में दैनिक भास्कर अखबार के पत्रकार तरुण सिसोदिया की कथित आत्महत्या ने कोविड महामारी के दौरान तनाव के बीच काम कर रहे पत्रकारों की मनोस्थिति और उनके अवसाद पीड़ित होने को लेकर एक नई बहस छेड़ दी है। दैनिक भास्कर में बतौर हेल्थ रिपोर्टर काम करने वाले तरुण की मौत छह जुलाई को हुई थी। वे कोरोना संक्रमित थे और उनका एम्स में इलाज चल रहा था। एम्स का दावा है कि उन्होंने अस्पताल की इमारत की चौथी मंजिल से कूदकर आत्महत्या की। हालांकि उनकी आत्महत्या को लेकर संदेह भी जताया जा रहा है।
उनके भाई दीपक ने बताया था कि मीडिया संस्थान उनके भाई को प्रताड़ित कर रहा था। उनका कहना था, ‘मीडिया संस्थान उनके भाई को प्रताड़ित कर रहा था। तरुण पूरे दिन काम करते थे, लेकिन उनकी स्टोरी न ली जाती और न ही छापी जाती थी। उन्हें बाइलाइन भी नहीं दी जा रही थी।’
इस बीच देश में कोरोना संकट के बीच बड़े से लेकर छोटे लगभग हर तरह के मीडिया संस्थानों से पत्रकारों को निकाले जाने के मामले लगातार सामने आए हैं। कई अखबारों ने सर्कुलेशन कम होने का हवाला दिया है, तो कुछ संस्थानों ने विज्ञापन का पैसा कम होने की बात कहकर पत्रकारों पर गाज गिराई है। ऐसे कई अखबार हैं, जिनके कुछ एडिशन बंद कर दिए गए हैं, कई मीडिया संस्थानों में पत्रकारों के वेतन में कटौती की जा रही है तो कुछ संस्थानों ने कर्मचारियों को अवैतनिक छुट्टियों पर भेज दिया है। इस बारे में पोर्टल 'द वायर' ने रीतू तोमर की एक विस्तृत रिपोर्ट पोस्ट प्रकाशित की है।
रिपोर्ट के अनुसार कुछ दिनों पहले द हिंदू के मुंबई ब्यूरो से लगभग 20 पत्रकारों से इस्तीफा लिए जाने का मामला सामने आया था। अखबार के कर्नाटक और तेलंगाना सहित कई राज्यों के ब्यूरो से भी पत्रकारों को नौकरी छोड़ने को कहा गया था। बीते तीन महीनों में इकोनॉमिक टाइम्स के विभिन्न ब्यूरो में छंटनी की गई। टाइम्स ऑफ इंडिया ने अपने कई संस्करण बंद कर दिए। महाराष्ट्र के सकाल टाइम्स ने अपने प्रिंट एडिशन को बंद कर पचास से अधिक कर्मचारियों को नौकरी से निकाल दिया। द टेलीग्राफ ने अपने दो ब्यूरो बंद कर दिए और लगभग पचास कर्मचारियों को नौकरी छोड़ने को कह दिया।
हिंदुस्तान टाइम्स मीडिया समूह ने भी लगभग 150 कर्मचारियों को नौकरी से निकाल दिया। वहीं, द क्विंट जैसे डिजिटल मीडिया संस्थान ने अपने कई कर्मचारियों को अवैतनिक अवकाश पर भेज दिया। ऐसे में सवाल उठता है कि जब पत्रकारों को आर्थिक और सामाजिक तौर पर अधिक मजबूत किए जाने की जरूरत है, उन्हें नौकरियों से लगातार निकाले जाने के मामले सामने आ रहे हैं, उनकी आय का स्रोत छीना जा रहा है। पर हाल यह कि मीडिया संस्थानों से लेकर सरकारों तक का रवैया उन्हें लेकर उदासीन बना हुआ है।
केंद्र सरकार ने कोरोना वॉरियर्स के तौर पर काम कर रहे स्वास्थ्यकर्मियों के लिए पचास लाख रुपये के बीमा कवर का ऐलान किया है लेकिन पत्रकारों को इस तरह की सुविधा नहीं दी गई है जबकि वे भी लगातार इन वॉरियर्स की तरह जोखिम भरे माहौल में काम कर रहे हैं। एक तरफ उनके सामने कोरोना से संक्रमित होने का खतरा है तो दूसरी तरफ नौकरी जाने का। उनके पास न आर्थिक सुरक्षा है और न ही सामाजिक। अगर काम के दौरान एक पत्रकार कोरोना से जूझते हुए दम तोड़ देता है तो उसके परिवार को सरकार से कोई आर्थिक मदद नहीं मिलेगी लेकिन इसकी चिंता न उन मीडिया संस्थानों को हैं, जहां ये पत्रकार काम करते हैं और न ही सरकार को।
कोरोना के चलते संस्थानों का काम और उनके कर्मचारियों के प्रति रवैया बदला है। इस दौरान कई मामलों में पत्रकारों ने आगे आकर अपने अवसादग्रस्त होने की बात भी स्वीकारी है। न्यूज नेशन में नौकरी से हटाए गए पत्रकार राजू कुमार कहते हैं, ‘लॉकडाउन के शुरुआती चरण में ही हमारी 16 लोगों की अंग्रेजी की डिजिटल टीम को नौकरी से निकाल दिया गया, जिसके बाद से सभी लोग घर पर बेरोजगार बैठे हैं, जिनमें से कुछ डिप्रेशन से जूझ रहे हैं।’
टीवी चैनल न्यूज नेशन देश का पहला ऐसा मीडिया संस्थान था, जिसने लॉकडाउन के शुरुआती चरण में ही 16 पत्रकारों को बिना कारण बताए नौकरी से निकाला था। इसके अलावा द हिंदू, इंडियन एक्सप्रेस, द टेलीग्राफ, राजस्थान पत्रिका, हिंदुस्तान टाइम्स ग्रुप, टाइम्स ग्रुप से भी कई पत्रकारों को निकाले जाने के मामले सामने आए।
पिछले महीने हिंदुस्तान टाइम्स ग्रुप से निकाले गए सीनियर कॉपी एडिटर चेतन कुमार कहते हैं, ‘हमें लॉकडाउन के दौरान घर से काम करने को कहा गया था। एक महीना ऐसे काम करने के बाद हमें बिना वाजिब कारण बताए नौकरी से निकाल दिया कहा गया। कारण बताया गया कि संस्थान को विज्ञापन नहीं मिल रहे हैं। आय कम हो गई है, इसलिए उन्होंने हमारी आय के स्रोत को बंद कर दिया।’
ऐसी कोई संस्था हमारे देश में नहीं है, जो लॉकडाउन के दौरान नौकरियों से निकाले गए पत्रकारों की संख्या के सही आंकड़े पेश सके लेकिन कुछ लोगों से बातचीत के आधार पर पता चला है कि सिर्फ दिल्ली में ही कोरोना काल में लगभग 550 तक पत्रकार बेरोजगार हुए हैं, हो सकता है कि यह संख्या ज्यादा है। ऐसे में यह संख्या पूरे देश में हजारों में होगी। ऐसे समय में दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि पत्रकारों को अपनी आवाज उठाने के लिए साथ भी बमुश्किल ही नसीब हो रहा है। पत्रकारों की मौजूदा स्थिति को लेकर देश की प्रेस संस्थाएं भी सवाल खड़े करने में पीछे रही हैं।
ऐसे संगठनों-संस्थाओं की चुप्पी के सवाल पर भारतीय जनसंचार संस्थान (आईआईएमसी) के पूर्व महानिदेशक प्रोफेसर केजी सुरेश कहते हैं, ‘सवाल यह है कि देश में पत्रकारों के हितों की सुरक्षा कैसे हो? देश में इस तरह की कोई संस्था नहीं बची है। जो हैं, वे खेमों में बंटी हैं, वहां पत्रकारों की सुरक्षा के नाम पर बस प्रेस रिलीज जारी कर निंदा कर दी जाती है।’ वे आगे कहते हैं, ‘पहले वर्किंग जर्नलिस्ट एक्ट और वेज बोर्ड पत्रकारों के लिए दो स्तंभ हुआ करते थे, जो मीडियाकर्मियों की सामाजिक सुरक्षा सुनिश्चित करते थे लेकिन आज के समय में वेज बोर्ड को समाप्त कर दिया गया, वर्किंग जनलिस्ट एक्ट को मर्ज कर दिया गया है। हमारी हालत मनरेगा मजदूरों से भी खराब है, मनरेगा मजदूरों के पास कम से कम सिक्योरिटी तो है लेकिन पत्रकारों के पास वह भी नहीं है।’
पत्रकारों की कटती तनख्वाह और जाती नौकरियों के बीच देश में पत्रकारों के हितों के लिए काम कर रही संस्था नेशनल यूनियन ऑफ जर्नलिस्ट्स (इंडिया) ने पत्रकारों को आर्थिक सुरक्षा दिए जाने की मांग करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चिट्ठी भी लिखी है। इसके अध्यक्ष रास बिहारी कहते हैं, ‘मौजूदा समय में पत्रकारों की दशा बहुत खराब है। बमुश्किल ही देश का ऐसा कोई संस्थान है, जहां पत्रकारों से नौकरियों से नहीं निकाला गया हो या जिनकी तनख्वाह में कटौती नहीं हुई हो। अखबार लगातार बंद हो रहे हैं, बेशर्मी के साथ मीडिया संस्थान पत्रकारों को बाहर का रास्ता दिखा रहे हैं, जिसमें तय नियमों में कहीं पालन नहीं हो रहा है।’
उनका कहना है कि इस मसले पर सरकार की गंभीरता भी संदेह के घेरे में है। वे बताते हैं, ‘हमने पत्रकारों को आर्थिक सुरक्षा देने की मांग करते हुए अप्रैल से लेकर जून तक चार बार प्रधानमंत्री मोदी को चिट्ठी लिखी, जिनमें हमने पत्रकारों को आर्थिक पैकेज देने या एकमुश्त राशि देने की मांग की है। लेकिन आज तक एक भी चिट्ठी का जवाब नहीं आया। मतलब सरकार इस मामले को गंभीरता से नहीं ले रही।’