झारखंड में दृष्टिबाधित आईएएस अफसर को जिले की जिम्मेदारी


रांची। भारतीय प्रशासनिक सेवा के एक दृष्टिबाधित अधिकारी राजेश सिंह को झारखंड सरकार ने जिले की कमान देकर नायाब उदाहरण पेश किया है। वे प्रांत के पहले दिव्यांग आईएएस हैं जिन्हें जिले की जिम्मेदारी मिली है। झारखंड की हेमंत सोरेन की सरकार ने उन्हें बोकारो जिले का उपायुक्त बनाया है। राजेश सिंह देश के दूसरे विजुअली चैलैंज्ड अधिकारी हैं जिन्हें किसी जिले की कमान सौंपी गई है। इससे पहले  दृष्टिबाधित प्रांजल पाटिल को केरल की राजधानी तिरुअनंतपुरम का सब कलेक्टर बनाया गया था।



झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के साथ राजेश सिंह। 


राजेश सिंह की कहानी हमें यह बताने को काफी है कि किसी भी विपरीत परिस्थिति में धैर्य व परिश्रम का साथ नहीं छोड़ना चाहिए।  सिस्टम से लड़ने का माद्दा होना चाहिए।  इसी दमखम पर उन्होंने आईएएस अफसर बनने के अपने सपने को साकार किया।  उपायुक्त के पद पर तैनाती के पहले राजेश सिंह उच्च व तकनीकी शिक्षा विभाग में बतौर विशेष सचिव कार्यरत थे। उपायुक्त जैसे जिम्मेदार पद पर उनकी नियुक्ति उस व्यवस्था को एक चुनौती है जो ऐसे दिव्यांगों पर भरोसा नहीं करती और अहम पद के काबिल नहीं मानती। डी डब्ल्यू वर्ल्ड पर मनीष कुमार की एक रिपोर्ट के अनुसार राजेश सिंह को यह सफलता एक झटके में नहीं मिली है। 2007 में संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षा पास करने के बाद उन्हें आईएएस में नौकरी पाने के लिए भी एक लंबी कानूनी लड़ाई लडनी पड़ी। चार साल के संघर्ष के बाद सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले के बाद वे 2011 में उन्हें भारतीय प्रशासनिक सेवा का अधिकारी बनाया गया। राजेश की कहानी यह बताने को काफी है कि हौसले अगर बुलंद हो तो कामयाबी तय है।
राजेश बिहार की राजधानी पटना के धनरुआ के निवासी हैं। उनका गांव एक विशेष प्रकार के लड्डू के लिए जाना जाता है। उनके पिता आरके सिंह पटना सिविल कोर्ट में बतौर अधिकारी तैनात हैं। राजेश की आंख की रोशनी छह वर्ष की उम्र में उस वक्त चली गई थी जब वे क्रिकेट खेल रहे थे। एक तेज रफ्तार गेंद ने उनकी आंखों की रोशनी ले ली।


आंखों की रोशनी क्या गई, सब कुछ बदल गया। राजेश कहते हैं, "अब संकल्प लेने का समय था। अपनी जीवटता बरकरार रखने का समय था।" इसी जीवटता के तहत उन्होंने देहरादून के मॉडल स्कूल से लेकर दिल्ली विश्वविद्यालय होते हुए जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय तक का सफर तय किया। उनका लक्ष्य आईएएस अफसर बनना था। उन्होंने अपना लक्ष्य भी पा लिया। वे कहते हैं, "वास्तविक संघर्ष तो परीक्षा की तैयारी थी लेकिन मैं भाग्यशाली था कि मेरे कई मित्रों ने मेरा काफी सहयोग किया। जेएनयू ने मुझे बहुत कुछ दिया। वह विभिन्न तरह के आइडियाज व आइडियोलॉजी की प्रयोग स्थली है। इसने मेरी पर्सनालिटी, मेरे विजन को काफी हद तक विकसित किया और जो समानता मैंने वहां देखी वह वाकई अतुलनीय है।"


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