सर्कस वालों के लिए अपना अस्तित्व बनाए रखने की चुनौती

 


मुंबई। मनोरंजन की दुनिया में एक दौर वो भी था जब सर्कस को लेकर बेहद लोकप्रियता का आलम था। लेकिन अब बदलते वक़्त के साथ सर्कस की दुनिया भी गहरे संकट में नज़र आ रही है। आज कोरोना संकट से निकल कर अपना अस्तित्व बनाए रखना सर्कस वालों के लिए चुनौती बनता जा रहा है। 



मुंबई का ग्रेट बॉम्बे सर्कस ग्रुप पिछले 100 सालों से सर्कस दिखा रहा है। टीम में भारत के लगभग हर राज्य के लोग शामिल हैं। डीडब्ल्यू की एक रिपोर्ट के अनुसार ग्रेट बॉम्बे सर्कस की टीम इन दिनों तमिलनाडु राज्य के तिरूवरूर जिले के मन्नारगुड़ी गांव में फंसी हुई है। टीम में 134 लोगों के साथ ऊंट, घोड़े, कुत्ते, तोते समेत बड़ी संख्या में जानवर है। सर्कस दिखाने के लिए टीम 22 फरवरी को मन्नारगुड़ी पहुंची और योजना के मुताबिक उसे 27 मार्च तक वहां शो करना था. इसके बाद तय कार्यक्रम के अनुसार सर्कस को चार अप्रैल को कोयंबटूर के लिए रवाना होना था। कोयंबटूर में जगह के किराये से लेकर सारी जरूरी व्यवस्थाओं के लिए पैसा दिया जा चुका था. लेकिन लाॅकडाउन की घोषणा ने सर्कस को रोक दिया और 134 सदस्यों की पूरी टीम मन्नारगुड़ी में फंस गई।


सर्कस के मैनेजर जे प्रकाशन ने  बातचीत में कहा, "हमें अपनी टीम और जानवरों को खिलाने के लिए रोजाना 25 हजार रुपये की जरूरत होती है। साथ ही पांच हजार रुपये का खर्चा डीजल और जनरेटरों पर आता है।” हालांकि प्रशासन और स्थानीय लोगों की मदद से टीम को भोजन तो पर्याप्त मिल रहा है लेकिन कोई वित्तीय सहायता नहीं मिल रही। प्रकाशन कहते हैं, "वित्तीय सहायता नहीं मिलने के चलते टीम के सदस्य अपने घर-परिवारों को कोई पैसा नहीं पहुंचा पा रहे हैं और उनमें निराशा बढ़ रही है. निराशा के बीच सर्कस का खेल नहीं होता।"


कुछ ऐसी ही कहानी 90 सदस्यों वाले रेम्बो सर्कस की भी है।  सर्कस में करीब 45 महिलाएं और बाकी पुरुष हैं। पुणे का रेम्बो सर्कस पिछले तीन दशकों से महाराष्ट्र में सक्रिय है। लेकिन समय के साथ इनकी स्थिति भी खराब होती जा रही है।  मालिक सुजीत दिलीप के परिवार की दूसरी पीढ़ी इस सर्कस को चला रही है। वे कहते हैं कि जब से बाघ और शेर जैसे जंगली जानवरों के इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगा तब से ही सर्कस की लोकप्रियता घटने लगी।  हालांकि सर्कस मालिक नोटबंदी और जलवायु परिवर्तन को भी खराब स्थिति के लिए जिम्मेदार मानते हैं।  दिलीप कहते हैं,  "पिछले साल कई ऐसे इलाकों में बाढ़ आ गई जहां सर्कस होना था।  दिवाली तक बारिश ही होती रही और इस साल कोरोना वायरस ने कमर तोड़ दी है। ”


सर्कस मालिक मानते हैं कि वे भी प्रवासी मजदूरों जैसे ही है जो जगह-जगह जाकर काम करते हैं इसलिए उनको भी आर्थिक मदद मिलनी चाहिए। कुछ सर्कस मालिक यह भी कहते हैं कि कोरोना संकट के बाद वे सर्कस के प्रोग्राम शुरू कर देंगे और सोशल डिस्टेंसिंग का ख्याल रखेंगे।  रेम्बो सर्कस, वर्ल्ड सर्कस फेडरेशन का सदस्य है और विदेशों में भी कार्यक्रम करता है।  दिलीप बताते हैं, " कुछ जगह विदेशों में सर्कस शुरू होने लगे हैं।  हम काम धंधा रोक तो नहीं सकते अब दो गज की दूरी को ही आदत बनानी होगी।  इसलिए जब हमारे प्रोग्राम शुरू होंगे तो हम ऑनलाइन टिकट से लेकर दर्शकों के बैठने की व्यवस्था में इस बात का ख्याल रखेंगे। ”


भारत में सर्कस की परंपरा 19वीं सदी से चली आ रही है।  यूं तो देश में घूम घूम कर लोगों का मनोरंजन करने वाले कलाकारों का प्राचीन काल से ही इतिहास रहा है।  लेकिन पहला भारतीय सर्कस 1880 में शुरू हुआ. पहले सर्कस की शुरुआत का श्रेय महाराष्ट्र के विष्णुपंत छात्रो को जाता है, जो स्थानीय राजा के अस्तबल के प्रभारी थे और घोड़े पर करतब किया करते थे। कहते हैं कि वे कुर्दुवाड़ी के राजा के साथ 1874 में भारत के दौरे पर आए रॉयल इटैलियन सर्कस देखने बंबई गए थे।  वहीं से प्रेरणा लेकर उन्होंने पहला भारतीय सर्कस ग्रेट इंडियन सर्कस शुरू किया जिसका पहला शो 20 मार्च 1880 को हुआ। सर्कस में जंगली जानवरों और बाल श्रम पर रोक के बाद भारतीय सर्कस अस्तित्व का संकट झेल रहा है।  अब कोरोना ने उसके लिए और मुश्किलें खड़ी कर दी हैं। 


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