कोरोना के ख़िलाफ़ जंग में क्यों खामोश हैं हमारे जनप्रतिनिधि ?

अटका कहाँ स्वराज? बोल दिल्ली! तू क्या कहती है?
तू रानी बन गयी वेदना जनता क्यों सहती है?
सबके भाग्य दबा रखे हैं किसने अपने कर में?
उतरी थी जो विभा, हुई बंदिनी बता किस घर में
समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनके भी अपराध!


नई दिल्ली। राष्ट्र कवि रामधारी सिंह दिनकर की बेहद चर्चित कविता 'समर शेष है' की यह पंक्तियाँ वर्तमान दौर में बिलकुल सटीक नज़र आती हैं।कुल मिलाकर पिछले दो महीने से देश में जो कुछ हो रहा है, उसका फ़ैसला सिर्फ़ और सिर्फ़ सरकार और नौकरशाह कर रहे हैं। इतनी बड़ी वैश्विक मानवीय त्रासदी के दौरान देश की सर्वोच्च नीति निर्धारक संस्था और सबसे बड़े राजनीतिक मंच यानी संसद को भूमिकाहीन बना दिए जाने की अभूतपूर्व घटना भारत में हो रही है। इन हालात पर गहरी चिंता जताते हुए वरिष्ठ पत्रकार अनिल जैन ने बीबीसी के लिए एक आलेख लिखा है। इस आलेख में उन्होंने कोरोना काल में देश की संसद के मौन रहने पर तमाम सवाल उठाये हैं। 



उन्होंने लिखा है कि मानवीय आपदा और लोकतांत्रिक तकाजे के तहत अपेक्षा की जा रही थी कि सरकार संवैधानिक प्रावधान या तकनीकी पेंच का सहारा नहीं लेगी और संसद का विशेष सत्र बुलाएगी, लेकिन इस दिशा में सरकार ने न तो अपनी ओर से कोई दिलचस्पी दिखाई और न ही इस बारे में विपक्षी सांसदों की मांग को कोई तवज्जो दी। कोई कह सकता है कि सोशल या फिजिकल डिस्टेंसिंग बनाए रखने की ज़रूरत की वजह से संसद का कामकाज चल पाना संभव नहीं है लेकिन यह दलील बेदम है, क्योंकि इसी कोरोना काल में दुनिया के तमाम देशों में सांसदों ने अपने-अपने देश की संसद में अपनी जनता की तकलीफों का मुद्दा उठाया है और उठा रहे हैं। 


एक तरफ सरकार ऐप बनाकर देश के हर नागरिक को उसे डाउनलोड करने का दबाव बना रही है, ताकि तकनीक के ज़रिए कोविड-19 से लड़ा जा सके और दूसरी ओर संसद में तकनीक का इस्तेमाल कर समितियों की बैठक करने से मना किया जा रहा है। यह स्थिति तब है जब प्रधानमंत्री जीवन के हर क्षेत्र में तकनीक के अधिक से अधिक इस्तेमाल का आग्रह करते हैं। संसद और विधान मंडलों के निर्वाचित सदस्यों की बतौर जनप्रतिनिधि आख़िर कोई भूमिका है जबकि देश की बहुत बड़ी आबादी कुप्रबंधन की ज़बरदस्त मार झेल रही है। सरकार को इसके निर्णयों के लिए जवाबदेह बनाने का कोई तरीक़ा देश में नहीं दिख रहा।


ऐसे में जो कोई भी अव्यवस्था, संवेदनहीनता, अमानवीयता से त्रस्त लोगों की आवाज़ उठाने की कोशिश कर रहा है, उसे यह नसीहत देकर चुप कराने की कोशिश की जा रही है कि इस मुद्दे पर राजनीति नहीं की जानी चाहिए। नेहरू युग के प्रखर संसदविद और समाजवादी विचारक राम मनोहर लोहिया कहा करते थे, जब सड़क सूनी हो जाए तो संसद बांझ और सरकार निरंकुश हो जाती है।" आज कमोबेश यही हालत दिख रही है। भारी बहुमत वाली सरकार तो कई बार संसद को ठेंगे पर रखकर ऐसे मनमाने फ़ैसले करने लगती है, जो कुछ ही समय बाद देश के लिए घातक साबित होते हैं। मसलन, पिछले दिनों एक-एक करके छह राज्य सरकारों ने अपने यहाँ श्रम क़ानूनों को तीन साल के लिए स्थगित करने का आनन-फानन में ऐलान कर दिया।


ऐसा सिर्फ़ भाजपा शासित राज्यों ने ही नहीं बल्कि कांग्रेस शासित राज्यों ने भी किया जबकि यह फ़ैसला राज्य सरकारें नहीं कर सकतीं, क्योंकि यह विषय संविधान की समवर्ती सूची में है, लिहाजा श्रम क़ानूनों के मामले में ऐसा कोई फैसला संसद की मंज़ूरी के बगैर हो ही नहीं सकता। संविधान ने संसद के बनाए क़ानूनों को स्थगित करने या उनमें संशोधन करने का अधिकार राज्यों को नहीं दिया है, लेकिन कोरोना संकट की आड़ में राज्य बेधड़क अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर चले गए।कोरोना संकट की चुनौतियों का सामना करने और ढहती अर्थव्यवस्था को थामने के लिए घोषित किए गए 20 लाख करोड़ रुपए के पैकेज़ और नए आर्थिक सुधार लागू करने के मामले में भी ऐसा ही हुआ, दोनों मामलों में प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री ने ऐलान तो कर दिया, लेकिन संसद की मंज़ूरी लेना ज़रूरी नहीं समझा। अमरीका, ब्रिटेन जैसे कई देशों में भी राहत पैकेज घोषित किए गए हैं, लेकिन ऐसा करने के पहले वहाँ की सरकारों ने विपक्षी दलों से सुझाव मांगे और पैकेज को संसद से मंज़ूरी की मुहर लगवाने के बाद घोषित किया।


लेकिन भारत में ऐसा कुछ नहीं हुआ जबकि हमारा संविधान साफ़ कहता है कि सरकार संसद की मंज़ूरी के बगैर सरकारी ख़जाने का एक पैसा भी ख़र्च नहीं कर सकती।बजट और वित्त विधेयक के पारित होने से सरकार को यही मंज़ूरी मिलती है इसलिए अभी कोई नहीं जानता, यहाँ तक कि शायद कैबिनेट भी नहीं कि 20 लाख करोड़ रुपये के पैकेज में से जो 2 लाख करोड़ रुपए वास्तविक राहत के रूप में तात्कालिक तौर पर ख़र्च हुए हैं, वे 23 मार्च को पारित हुए मौजूदा बजटीय प्रावधानों के अतिरिक्त हैं अथवा उसके लिए अन्य मदों के ख़र्च में कटौती की गई है।


किसी भी लोकतंत्र में संसद और विधानसभाएं जनता के सुख-दुख का आईना होती हैं, लेकिन कोरोना काल में इस आईने पर पर्दा डला हुआ है। लॉकडाउन लागू होने के बाद देश भर की सड़कों पर बिखरे तरह-तरह के हज़ारों दर्दनाक दृश्यों, घरों में क़ैद ग़रीब लोगों की दुश्वारियों और करोड़ों किसानों की तकलीफ़ों को सुनने के लिए भी देश की सबसे बड़ी पंचायत नहीं बैठी।


जनता के चुने हुए नुमाइंदों को मौक़ा ही नहीं मिल रहा है कि वे अपने-अपने इलाक़े की ज़मीनी हक़ीकत और लोगों की तकलीफ़ों से प्रधानमंत्री और उनकी सरकार को अवगत करा सकें या उनसे जवाब-तलब कर सकें। सुप्रीम कोर्ट पहले ही कह चुका है कि वह इस समय सरकार के कामकाज में कोई दखल देना उचित नहीं समझता। इस प्रकार भारत दुनिया का शायद एकमात्र ऐसा लोकतांत्रिक देश बन गया, जहाँ कोरोना के संकटकाल में व्यवस्था तंत्र की सारी शक्तियां कार्यपालिका यानी सरकार ने अघोषित रूप से अपने हाथों में ले ली है। मशहूर इतिहासकार और दार्शनिक युवाल नोहा हरारी ने महज दो महीने पहले ही अपने एक लेख के जरिए भविष्यवाणी की थी कि कोरोना महामारी के चलते दुनिया भर में लोकतंत्र सिकुड़ेगा, और सरकारें अपने आपको सर्वशक्तिमान बनाने के लिए नए-नए रास्ते अपनाएँगी, क्या यह उनकी इस भविष्यवाणी के सच साबित होने की शुरुआत है?


 


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