कोरोना के टीके के परीक्षण के लिए सामने आने लगे वालंटियर्स

जयपुर।  एक तरफ  ब्रिटेन और जर्मनी में कोरोना की दवा का इंसानों पर परीक्षण शुरू हो रहा है, दूसरी तरफ ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है, जो कोरोना के खिलाफ विकसित की जाने वाली दवा का अपने ऊपर परीक्षण करने के लिए तैयार हो रहे हैं।  इसी क्रम में अमरीका के सिएटल की निवासी 43 साल की जेनिफर हैलर की तस्वीर इन दिनों मीडिया में चर्चित रही। जेनिफर उन वालंटियर्स में हैं , जिन्होंने कोरोना के इलाज़ के लिए बनने वाली दवा का अपने ऊपर परीक्षण करने की स्वीकृति दी थी ।



कोविड-19  का पहला टीका 43  साल की जेनिफर हैलर  नाम की  महिला को लगाया गया। 


यह निश्चय ही चुनौती भरा काम  था । खुद जेनिफर का कहना है  'हम सभी और सम्पूर्ण मानव जाति अपने को असहाय महसूस कर रही है । ऐसे में मेरे लिए मानवता की भलाई के लिए छोटा -सा योगदान देने का यह शानदार अवसर है । मेरी दोनों बेटियां मानती हैं कि स्टडी में भाग लेना काफी कूल है । दुनिया भर में कोविड -19 के वैक्सीन विकसित किये जा रहे हैं,  मैं सिर्फ उसका हिस्सा हूँ ।'  सबसे पहले टीका लगवाने  वाली  दो बच्चों की माँ जेनिफर एक टेक कंपनी में ऑपरेशन मैनेजर हैं । वॉशिंगटन में सिएटल की काइज़र परमानेंट रिसर्च फैसिलिटी में कुल चार मरीज़ों को ये वैक्सीन दी गई है । अब वैज्ञानिक इस वैक्सीन का अध्ययन कर रहे हैं । हालांकि किसी भी  वैक्सीन को आने में करीब 12 से 18 महीने लग जाते हैं । अमेरिका के साथ-साथ चीन, भारत, रूस और अन्य देश इस महामारी से लड़ने के लिए दवाई तैयार करने में लगे हुए हैं।  


कोरोना वायरस (कोविड -19)  के संक्रमण से बचने को सभी देश लॉकडाउन  कर,  मेडिकल उपचार कर अपने तरीके से प्रयास कर रहे हैं । भारत में इससे निपटने के लिए हाल ही एपिडेमिक डिजीज एक्ट- 1897 लागू किया गया है, जो 123 साल पहले बना था । इसे मार्च 2020 को लागू किया गया है। यह केंद्र और राज्य सरकार को महामारी की रोकथाम के लिए विशेष अधिकार देता है । गौरतलब है कि 1897 में 123 साल पहले, पूर्व बम्बई स्टेट में बूबोनिक प्लेग ने महामारी का रूप लिया था । उस समय जीव विज्ञानी  वॉलदेमार हाफकिन को वैक्सीन के लिए खुद अपने ऊपर प्रयोग  करना पड़ा था क्योंकि नए प्रयोग के लिए कोई व्यक्ति तैयार नहीं था । आज स्थिति यह है कि अमेरिका में इस परीक्षण के लिए स्वस्थ वालंटियर्स खुद आगे आ रहे हैं , जेनिफर उन्हीं में से एक है ।


अतीत के पन्नों को पलटें तो 1896 में इस प्लेग महामारी की शुरुआत हुई । पहले देश के पश्चिमी भागों में यह फैली फिर बम्बई और पश्चिमी बंगाल में भी इसका भयानक मंजर देखने को मिला ।  1896-97 में यह महामारी बढ़ रही थी। ब्रिटिश सरकार ने डॉक्टर, नर्सों और मेडिकल उपचार तथा सुविधाएं मुहैया कराने की जगह सीधे सेना को ऑपरेशन में शामिल कर लिया था। सेना मरीजों को उठाकर सीधे आइसोलेशन कैम्प में डाल देती थी, जहाँ उन्हें बिना उपचार के अकेले मौत का इन्तजार करना पड़ता था । हाल ही आई विक्रम सम्पत की किताब 'सावरकर - ईकोस फ्रॉम दी फॉरगटन पास्ट' में भी इस क्रूरता का जिक्र है । स्वतन्त्रता सेनानी बाल गंगाधर तिलक ने अपने अखबार 'केसरी' में लिखा था,  'सरकार प्लेग से निपटने के लिए जो तरीके अपना रही है,  वे निरंकुश और सभ्यता को झकझोर देने वाले हैं,  सरकार को निरीह जनता पर इस अमानवीय दुर्व्यवहार से बाज आना चाहिए ।'  उस समय प्लेग काल में सरकार विरोधी कवरेज के कारण तिलक को 18 महीने की जेल हुई थी । 


प्लेग के संक्रमण से लोगों में भगदड़ मची थी, वे किसी भी हाल में इससे बचने का रास्ता तलाश रहे थे । तब भारत की आबादी 18  से 20 करोड़ थी । आंकड़ों को देखें तो करीब 1 करोड़ लोग मारे गए। इस महामारी ने 70 प्रतिशत लोगों को प्रभावित किया था । बम्बई  से पुणे तक प्लेग का आतंक था। शहर से आधी आबादी भाग चुकी थी । उस समय भारत में पेरिस से  हैजे का टीका लेकर आने वाले डॉक्टर वॉलदेमार हाफकिन सरकार की गुजारिश पर बम्बई की प्रयोगशाला में प्लेग  का टीका बनाने में जुट गए। उन्होंने खुद अपने पर इसका प्रयोग किया  और 10 जनवरी 1897 को प्लेग का टीका इज़ाद हो गया। ध्यान रहे,  डॉ. हाफकिन मूलत यूक्रेन (तत्कालीन रूस) के निवासी थे, वे बाद में पेरिस गए, जहाँ उन्होंने हैजे का टीका बनाया था । प्लेग का टीका बनाने का श्रेय भी उन्हें ही जाता है। इस टीके के आने के बाद ही प्लेग पर नियंत्रण पाया जा सका। वेबसाइट वायर.कॉम के अनुसार फुले साहित्य के अध्येता प्रो. हरी नरके बताते हैं कि पुणे नगरपालिका के आंकड़ों को देखें तो मालूम होता है कि उन दिनों वहां प्लेग से रोज़ 800-900    लोग मरते थे।


28 नवम्बर 1890 में समाज सुधारक, विचारक ज्योतिबा राव फुले के निधन के बाद उनकी पत्नी सावित्री बाई ने फुले द्वारा स्थापित 'सत्य शोधक समाज '  के काम को आगे बढ़ाया। वे इस संक्रामक बीमारी के लिए सेवा में जुटी थीं,  अपने बेटे डॉ. यशवंत राव फुले के साथ। इसी तरह मरीजों को बचाने में सावित्री बाई को भी संक्रमण हुआ और 10 मार्च 1897  को वे भी गुजर गईं। 1905  में पुणे में प्लेग की महामारी फिर फैली।  बीमारों की सेवा-सुश्रुषा में तत्पर यशवंत राव का भी संक्रमण के बाद 13 अक्टूबर 1905 में निधन हो गया।


यहाँ यह जानना भी जरूरी है कि 1918 में फैले स्वाइन फ्लू के समय भी आज जैसे हालात हो गए थे और सेनेटाइज़ेशन,  क्वारेंटाइन,  आइसोलेशन,  मास्क जरूरी हो गए थे। आज फिर वही हालात कोविड - 19 से नज़र आ रहे हैं । हमें टीका आने तक इंतज़ार करना होगा और तब तक सिर्फ और सिर्फ सोशल डिस्टेंसिंग से इससे अपने को बचाना होगा ।  


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