जानवर और इंसान की जद्दोज़हद को दर्शाती है फिल्म 'ईब आले ऊ'
मुंबई। हाल ही बर्लिन अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह में निर्देशक प्रतीक वत्स की फिल्म 'ईब आले ऊ' की बहुत चर्चा हुई। इस अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह में यह फिल्म पैनोरमा कैटिगिरी में दिखाई गई और लोगों ने फिल्म की कहानी और इसके प्रस्तुतीकरण को बेहद सराहा। पिछले साल मुंबई में हुए अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह में भी इस फिल्म की बहुत चर्चा हुई थी।
दरअसल प्रतीक वत्स की फिल्म 'ईब आले ऊ' एक परिवार की कहानी है जो बेहद गरीबी में है। कहानी का मुख्य पात्र अंजनी है जो दिल्ली की सरकारी इमारतों से बंदर भगाने का काम करता है। इस कहानी में समाज के दो तबकों का टकराव भी दिखता है। अंजनी 11वीं कक्षा तक पढ़ा एक लड़का है जो काम की तलाश में दिल्ली आ जाता है। अंजनी की बहन और जीजा दिल्ली की एक कच्ची बस्ती में रहते हैं । बहन मसालों के पैकेट पैक करने का काम करती है और जीजा एक सिक्योरिटी गार्ड हैं।अंजनी के जीजा उसे नई दिल्ली नगर निगम में सरकारी इमारतों से बंदर भगाने का काम दिलवा देते हैं।
अंजनी की मुलाकात यहां जितेंद्र नाम के एक साथी से होती है जो ईब आले ऊ की आवाज निकालकर बंदर भगाता है। जितेंद्र बताता है कि ईब लंगूर की आवाज, आले इंसान और ऊ बंदर की आवाज है। इससे बंदर भागते हैं। अंजनी ऐसा करने की कोशिश करता है लेकिन वो बंदरों से डरता है। ऐसे में बंदर उसके भगाने से नहीं भागते।
अंजनी की बहन गर्भवती होती है, उसके जीजा अपनी नौकरी के चलते अपनी पत्नी का ख्याल नहीं रख पाते। अंजनी के जीजा को उनकी कंपनी प्रमोशन देती है लेकिन साथ में बंदूक रखने की शर्त होती है जो उन्हें घर भी ले जानी होती है। अंजनी की बहन बंदूक को नेगेटिव एनर्जी मानकर उसे घर से बाहर रखने की जिद करती है। उनका घर एक कमरे का है। ऐसे में बंदूक बाहर नहीं रखी जा सकती। अंजनी की बहन गरीबी के चलते दवाएं नहीं खरीद पातीं। इससे उनके गर्भ में पल रहे बच्चे पर असर पड़ता है। साइकिल पर बंदूक लेकर चलने से अंजनी के जीजा की पीठ में तकलीफ होने लगती है।
इस सब के बीच बंदर भगाने के लिए अंजनी को एक आइडिया आता है और वो जगह-जगह लंगूरों की तस्वीरें लगा देता है। इस पर एक सरकारी अधिकारी उसकी शिकायत कर देता है। अंजनी का ठेकेदार उसे चेतावनी देता है। गणतंत्र दिवस परेड के दौरान अंजनी को बंदर भगाने का काम मिलता है। वहां उसे लंगूर की कॉस्ट्यूम पहन बंदर भगाने का आइडिया आता है। यह आइडिया काम कर जाता है लेकिन एक और सरकारी अधिकारी जानवर अधिकारों को लेकर अंजनी की शिकायत कर देता है। इसके चलते उसे नौकरी से निकाल दिया जाता है। उसे कोई काम नहीं आता है लेकिन वो लगातार काम तलाशता रहता है। जितेंद्र से एक बार एक बंदर मर जाता है और भीड़ पीट-पीटकर उसकी हत्या कर देती है। इससे अंजनी अवसाद में आ जाता है।
फिल्म की कहानी तीन हिस्सों में दिखती है। पहली गरीबी से निकलने के लिए संघर्ष करता अंजनी का परिवार। अंजनी के पास कोई स्किल नहीं है लेकिन वो काम की तलाश में लगातार बना हुआ है। पूरा परिवार काम करने की कोशिश कर रहा है जिसका असर आने वाले बच्चे के स्वास्थ्य पर भी है। इसका मतलब आने वाली पीढ़ी भी परेशानी झेलेगी।
दूसरा हिस्सा समाज के अंदरूनी टकराव का है। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की बड़ी सरकारी इमारतों से बंदर भगाने के लिए इंसानों को काम पर लगाया हुआ है। लेकिन ये इंसान कहीं किसी सरकारी रिकॉर्ड में बस एक संख्या की तरह दर्ज हैं। जब ये अपने काम को बेहतर करने की कोशिश करते हैं तो इनकी शिकायत कर दी जाती है।
तीसरा हिस्सा दिखाता है कि कैसे भीड़ अपने काम की कोशिश में लगे एक गरीब की हत्या कर देती है और व्यवस्था में इसका कोई हिसाब नहीं रहता।
पिछले साल मामी फिल्म फेस्टिवल में गोल्डन गेटवे अवॉर्ड जीत चुकी इस फिल्म को प्रतीक वत्स ने डायरेक्ट किया है। अंजनी के किरदार में शार्दूल भारद्वाज हैं जो अपने किरदार के साथ न्याय करते दिखते हैं। महिंद्र के किरदार में महिंद्र नाथ हैं जो कोई अभिनेता ना होकर दिल्ली में बंदर पकड़ने का काम करते हैं। फिल्म में बंदरों के कई शॉट लाजवाब हैं। एक्टर श्वेताभ सिंह ने इस फिल्म के साथ प्रॉडक्शन की शुरुआत की है। इस फिल्म का अधिकतर क्रू फिल्म एंड टेलिविजन इंडस्ट्री से पढ़ा है। ऐसे में उनकी फिल्मी समझ भी फिल्म में दिखाई देती है।