मंदी से भारतीय अर्थव्यवस्था तबाह, पर मनोरंजन उद्योग ने तलाशे नए रास्ते


नई दिल्ली। कोविड - 19 से उपजे हालात के बाद वैश्विक मंदी से भारतीय अर्थव्यवस्था के तबाह होने की रिपोर्टें लगातार सामने आ रही हैं और ज्यादातर लोगों का मानना है कि इन हालात में दूसरे तमाम क्षेत्रों की तरह मनोरंजन उद्योग को भी ज़बरदस्त घाटा  हो रहा है। ज्यादातर आम लोगों का अनुमान है कि मनोरंजन पर खर्च कम होने की आशंका है और उपयोगी चीजों पर लोग ज्यादा खर्च करेंगे। आज लोग भोजन और जरूरी सामान चाहते हैं, फिल्में या मनोरंजन नहीं। हालांकि यह धारणा गलत है। पिछले एक दशक में भारतीय मीडिया और मनोरंजन उद्योग के विकास के पैटर्न का भारतीय अर्थव्यवस्था से कोई संबंध नहीं है। कुछ वर्षों में देश के आर्थिक विकास और मीडिया-मनोरंजन उद्योग की वृद्धि के बीच का अंतर 10 प्रतिशत से भी कम रहा है और कुछ वर्षों में मीडिया-मनोरंजन उद्योग ने भारत के सकल घरेलू उत्पाद वृद्धि की तुलना में 100 प्रतिशत से अधिक की वृद्धि दर्ज की है।



फिल्म निर्माण विशेषज्ञ चैतन्य चिंचलिकर ने कहा है कि ठीक इसी तरह मौजूदा दौर में भी मनोरंजन उद्योग ने कमाई के नए रस्ते तलाश कर लिए हैं।  उन्होंने कहा है कि कई बार ऐसा भी हुआ है, जब अर्थव्यवस्था में उछाल आया, लेकिन मीडिया-मनोरंजन उद्योग में इसके विपरीत हुआ। इसलिए लोगों की मीडिया-मनोरंजन संबंधी भूख या खपत को अर्थव्यवस्था की स्थिति से जोड़ना सही नहीं होगा। इसके पीछे धारणा यह है कि मीडिया-मनोरंजन सामग्री की खपत एक विलासिता नहीं, बल्कि एक आवश्यकता है। दुनिया के इतिहास में केवल दो उद्योग हैं, जिन्होंने सकल वैश्विक आधार पर  देखें, तो साल-दर-साल कभी नकारात्मक वृद्धि दर नहीं दिखाई। पहला है स्वास्थ्य सेवा का क्षेत्र और दूसरा है मीडिया व मनोरंजन क्षेत्र। आर्थिक मंदी, स्वास्थ्य संकट के दौर और यहांं तक कि युद्ध के समय भी मीडिया और मनोरंजन उद्योग व उसके प्रमुख उत्पाद बढ़ते रहे हैं। तो मानवता के लिए मनोरंजन सामग्री उतनी ही महत्वपूर्ण क्यों है, जितनी कि स्वास्थ्य सेवा?


मुंबई की किसी भी झुग्गी-बस्ती पर आप एक सरसरी निगाह डालेंगे, तो आपको वहां के 75 प्रतिशत से अधिक घरों पर सैटेलाइट टीवी की छतरियां नजर आएंगी। अगर हम मानते हैं कि उनमें से ज्यादातर टीवी सेट किसी स्थानीय राजनीतिज्ञ से मिले उपहार हैं, तब भी सवाल पैदा होता है कि क्यों? लोग टीवी सेट उपहार देने वाले उन राजनीतिज्ञों को भला क्यों वोट देंगे? क्योंकि, जैसे स्वास्थ्य सेवा शरीर का पोषण करती है और वैसे ही टीवी सामग्री से मन की सेवा होती है।


यह एक ऐसा पोषण है, जिसे हम महसूस करते हैं। ज्यादातर मामलों में टीवी लोगों को बेहतर महसूस कराता है। नोबेल विजेता अभिजीत बनर्जी और एस्थर डुफ्लो के अध्ययन के साथ-साथ नौ दशक पहले हुई महामंदी के उपलब्ध आंकड़ों से भी पता चलता है कि 1930 के दशक में पश्चिम में गरीबों को मनोरंजन की जरूरत क्यों थी और फिल्मों ने क्यों अच्छा प्रदर्शन किया? लोग अपने जीवन को उम्मीद से भरना चाहते थे, इसलिए वे मीडिया और मनोरंजन सामग्री की तलाश में रहते हैं। राहत के लिए मीडिया और मनोरंजन लोगों को हर हाल में चाहिए।


जब कोविड-19 के कारण बड़े परदे पर सामग्री की खपत कम हो जाएगी, तब छोटे परदे पर खपत बढ़ जाएगी। फिल्में देखने और बाहर खाने से बचने से जो पैसे जेब में रह जाएंगे, वे किसी ऑनलाइन सेवा या सामग्री पर खर्च होंगे। इन दिनों यदि ऑनलाइन मंचों पर भागीदारी या सदस्यता बढ़े, तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। घर बैठे लोग यही करेंगे। यह ऑनलाइन सामग्रियों की खपत बढ़ने का समय है। देश में जितने भी ऑनलाइन कंटेंट प्लेटफार्म हैं, सभी पर इन दिनों ट्रैफिक बढ़ गया है यानी लोग मनोरंजन के लिए नए रास्ते तलाश रहे हैं। कुल मिलाकर, मनोरंजन सामग्री की खपत न कभी घटी है और न कभी घटेगी। 


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