फ़िल्में बता रही हैं कि कितना बदल गया इंसान!


अजमेर। हाल ही में अजमेर से लखनऊ की  रेल यात्रा के दौरान मैंने मन्नू भंडारी ( वे अजमेर के सावित्री कन्या महाविद्यालय में लेक्चरर रही हैं ) की कहानी  " यही सच  है " दोबारा  पढ़ी। इस कहानी पर फिल्म  " रजनीगंधा" बनी थी जो उस समय की कम बजट की हिट फिल्म थी। मैंने इंटरनेट के जरिए टीवी स्क्रीन पर इस फिल्म को दोबारा देखा। इस फिल्म का गाना "रजनीगंधा फूल तुम्हारे" आज भी सीधे मन को छूता है।
 "रजनीगंधा "के बाद मुझे एक और फिल्म याद आई  -राजेश खन्ना की "दो रास्ते " जिसका गाना " बिंदिया चमकेगी चूड़ी खनकेगी" सुपरहिट रहा था।



उस दौर में अमोल पालेकर  जैसा  आम आदमी जैसा दिखने वाला चेहरा भी सहज अभिनय के दम पर लोगों का फेवरेट हो जाता था। दीप्ति नवल ग्लैमरस नहीं थी पर अभिनय के दम पर पसंद की जाती थी।
" दो रास्ते ", "आदमी और इंसान" सहित सैकड़ों फिल्में ऐसी बनीं, जो भले ही फार्मूला फिल्में थी लेकिन इनमें बुराई पर अच्छाई की विजय बताते हुए अच्छा व्यक्ति बनने की प्रेरणा दी गई थी।
 इन फिल्मों के बाद अचानक एक फिल्म  अमिताभ की फिल्म "सिलसिला" आई थी , जिसकी कहानी  विवाहेतर संबंधों( एक्स्ट्रामेरिटल अफेयर्स) पर आधारित  थी और यह रियल लाइफ स्टोरी थी । फ़िल्म में जया भादुड़ी अमिताभ की पत्नी होती है लेकिन वे रेखा से प्यार करते हैं। इस फिल्म की कथा, पटकथा ,डायलॉग ,गीत,संगीत सभी श्रेष्ठ थे लेकिन यह दर्शकों को उस समय कतई पसंद नहीं आई थी क्योंकि समाज के " वैल्यू सिस्टम" के विपरीत थी और इसमें एक्स्ट्रा मैरिटल रिलेशंस को महिमामंडित किया गया था ।कुछ साल बाद समाज के वैल्यू सिस्टम में कुछ खुलापन  आया और लोगों ने  वीसीआर के माध्यम  कई कई बार "सिलसिला " फिल्म को देखा। 
 वर्तमान समय में " तनु वेड्स मनु " , "  बधाई हो" , "ड्रीम गर्ल " बाला"  जैसी उद्देश्य पूर्ण और अच्छी फिल्में आई तथा हिट भी रहीं। कार्तिक आर्यन की" सोनू के टीटू की स्वीटी", " लुकाछिपी"  तथा "पति पत्नी और वो" भी हिट रही, जो उद्देश्यपूर्ण ना होकर विशुद्ध मनोरंजन के लिए बनी थी । सलमान खान की "दबंग " व " भारत"और टाइगर श्रॉफ की फिल्म "बागी" में हिंसा के अलावा कुछ नहीं था लेकिन ये फिल्में  तीन-चार दिन में इतना कलेक्शन कर लेती हैं, जितना स्वस्थ फिल्में अपने पूरे लाइफ टाइम में नहीं कर पाती।
"बधाई हो" जैसी  फिल्मों को भी मैं टर्निंग पॉइंट  मानता हूं क्योंकि भारतीय समाज में एक 28 से 30 साल के युवा  की मां गर्भवती हो जाए और उस पर फ़िल्म हो तो ये हमारे परंपरागत वैल्यू सिस्टम के अनुरूप नहीं है। फिल्म" शुभ मंगल सावधान " और " बधाई हो " कई जगह लक्ष्मणरेखा तोड़ती हैं, इसके बावजूद दर्शक इन्हें परिवार के साथ देखने में संकोच नहीं करता और ये हिट रहती है। यह बदलता हुआ भारतीय समाज है।
यह विमर्श का विषय होना चाहिए कि अच्छी और स्वस्थ मानसिकता विकसित करने वाली फिल्में चल भले ही जाएं लेकिन इनका 80- 90 करोड़ पर से आगे बढ़ना मुश्किल होता है जबकि मारधाड़ वाली और बिना किसी तर्क पर आधारित फिल्में 4 से 5 से नहीं इतना कलेक्शन कर लेती हैं और आसानी से 100- 200- 300 करोड़ रुपए का आंकड़ा पार कर लेती है।कंगना रनोत की उद्देश्य पूर्ण फ़िल्म " पंगा" का ना चलना निराश करता है।
पुरानी फिल्में जहां कोई ना कोई अच्छा संदेश देती थी वही आजकल की फिल्में सेक्स और हिंसा के लिए उकसाती हैं।  फिल्म और वेब सीरीज में अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर गालियों ,अश्लीलता और हिंसा का खुलकर प्रयोग हो रहा है।
मार्च 2020 में "रजनीगंधा" फिल्म को दोबारा देखते हुए मैं यही सोच रहा था कि इस तरह की स्वस्थ और सादगी भरी फिल्म आज आ जाए तो शायद फिल्म का गेट कीपर भी इसे देखना पसंद ना करें।


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