सिर्फ एक प्रेम कहानी बन कर रह गई है 'शिकारा'

मुंबई।  निर्माता-निर्देशक विधु विनोद चोपड़ा की चर्चित फिल्म ‘शिकारा’ आज सिनेमाघरों में पहुँच  गई, लेकिन सोशल मीडिया पर ज्यादातर लोगों ने कहा है कि यह फिल्म कश्मीरी पंडित जोड़े की प्रेम कहानी के रूप में पेश की गई है और इसमें कश्मीरी पंडितों पर हुए  अत्याचारों को  बस संदर्भ के रूप में रखा गया है। आज से करीब 30 साल पहले, 19 जनवरी 1990 को हजारों कश्मीरी पंडितों को आतंक का शिकार होकर अपना घर छोड़ना पड़ा था। उन्हें उम्मीद थी कि वे जल्दी ही अपने घरों में दुबारा से उसी तरह रह पाएंगे, जैसे दशकों से रहते आए थे।  तब से लेकर अब तक 30 साल बीत गए, आज भी वे अपने ही देश में शरणार्थी बने हुए हैं। कई कश्मीरी पंडित अपने घर में फिर से रहने की आस अपने सीने में दबाए दुनिया से विदा भी हो गए। निर्माता-निर्देशक विधु विनोद चोपड़ा के परिवार ने भी इसी दर्द को झेला है। इस लिहाज़ से लोगों को यही उम्मीद थी कि विधु अपनी फिल्म में घाटी में आतंक की खौफनाक तस्वीर को ईमानदारी से दिखाएंगे। पर विधु लोगों की इस उम्मीद को पूरा नहीं कर पाए हैं। 



निर्देशक विधु विनोद चोपड़ा ने घाटी में आतंकवाद और कश्मीरी पंडितों की त्रासदी को सिर्फ संदर्भ के रूप में प्रयोग किया है। उसकी थोड़ी-सी झलक दिखलाई है। लेखक राहुल पंडिता, अभिजात जोशी और विधु घाटी में आतंकवाद के कारणों की ज्यादा चर्चा नहीं करते। बस प्रेम पर ध्यान केंद्रित करते हैं। इसीलिए फिल्म में कश्मीरी पंडितों के घर जलने के जो दृश्य है, उसमें निर्देशक उपद्रवियों के चेहरे दिखाने की बजाय उनकी परछाइयों को दिखलाते हैं। 


फिल्म की कहानी शुरू होती है 1987 में, जब कश्मीर घाटी कश्मीरी पंडितों की भी उतनी ही थी, जितनी कश्मीरी मुसलमानों की।  फिल्म खत्म होती है 2018 में, जब हजारों कश्मीरी पंडित अभी भी शरणार्थी का जीवन जीने को अभिशप्त हैं। आदिल खान और सादिया जैसे नए कलाकारों ने फिल्म में बहुत अच्छा काम किया है।  ख़ास बात यह भी है कि फिल्म में 4000 से ज्यादा कश्मीरी पंडितों ने भी काम किया है। 


फिल्म के बारे में विधु कहते हैं कि 'इसमें मेरी मां और मेरी अपनी जिंदगी के कई सीन हैं। रिफ्यूजी कैंपों में रहा, तथ्य जुटाए। लिहाजा त्रासदी का पूरा सच फिल्म में है। फिल्म में टमाटर वाला सीन भी असल में हुआ था। मैंने 56 साल की उम्र में इस फिल्म को लिखना प्रारंभ किया था। 67 की उम्र में खत्म किया। फिल्म यह सोचकर नहीं बनाई कि देश में वैसी लहर है तो बना लो।'


लेकिन आप इसे कश्मीरी पंडितों के निष्कासन, उनकी त्रासदी से जोड़ कर देखेंगे, तो आप शययद निराश हो सकते हैं, क्योंकि इसमें उनकी पीड़ा को मुखर अभिव्यक्ति नहीं मिलती है। सिनेमाई मापदंडों के आधार पर यह एक श्रेष्ठ फिल्म है और असर छोड़ती है।


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