जीवन के हर पक्ष को फिल्म संगीत ने किया है प्रभावित 


जयपुर।  भारतीय फिल्म संगीत अनेक सुनहरे पड़ावों से गुजरा है और करीब-करीब हर दौर में फ़िल्मी गीतों ने लोगों की ज़िन्दगी को बड़ी गहराई तक प्रभावित किया है। फिल्म संगीत में हमें अपनी संस्कृति के कई रंग दिखे। इन गीतों में सावन के झूले भी हैं, उड़ती पतंगे हैं, गरजती घटाएं हैं, विरहन की आग है तो बागों की बहार है। प्यार के नगमों  के लिए ऐसी धुनें बजी कि युवा उसमें खो गए। विरहन के ऐसे गीत बजे कि उसकी सिसक चुपचाप सुनी गई। यही भारतीय फिल्म संगीत है, जहां हारमोनियम भी बजा, तो स्पेनिश गिटार भी। जहां मुजरे का संगीत भी सुना गया तो देश प्रेम के तराने भी और हां भारतीय जीवन में रचा बसा भक्ति संगीत भी। 


जयपुर के जवाहर कला केन्द्र के शिल्प ग्राम में आयोजित समानान्तर साहित्य उत्सव में राजस्थान के वरिष्ठ लेखक नवल किशोर शर्मा की पुस्तक “फिल्म संगीत, संस्कृति और समाज” पर चर्चा के दौरान ये बातें उभर कर सामने आईं। क़िताब पर लेखक के साथ चर्चा करते हुए लेखक एवं वरिष्ठ पत्रकार श्याम माथुर ने कहा कि हालांकि आलम आरा पहली बोलती हुई फिल्म थी। लेकिन इससे पहले भी फिल्मों में संगीत था। बेशक यह पार्श्व संगीत नहीं था। फिल्म के पर्दे पर चलते चित्रों के मुताबिक साजिंदे संगीत बजाया करते थे। वह फिल्म के पर्दे के निकट बैठे होते थे। तबला, हारमोनियम और सारंगी बजती। लोग पास में ही बज रहे इस संगीत का मजा लेते थे और उनकी नजरें फिल्म के परदे पर होती थीं। लेकिन जब आलमआरा आई तो सब कुछ बदल गया। 



लेखक  नवलकिशोर शर्मा (बाएं ) से चर्चा करते हुए श्याम माथुर। 


इस अवसर पर पुस्तक के लेखक नवल किशोर शर्मा ने कहा कि “फिल्मों का गीत संगीत आरम्भ से ही समाज और संस्कृति को प्रभावित करता रहा है और आज भी इसका असर होता है। फिल्मों का सबसे मजबूत पक्ष इनका गीत- संगीत ही है। हम अगर शुरू से बात करें तो यह पायेंगें कि बिना फ़िल्मी गीतों के  हमारे घरों में, परिवार में, समाज में कोई भी कार्य नहीं होता है। बच्चे का जन्मदिन मनायेंगें तो वहां बजाए जाने वाले सारे गीत फिल्मों के ही होंगें। शादी-विवाह की तो बात ही क्या करें. सगाई से लेकर विवाह तक गानों का ही रोल होता है. आजकल महिला संगीत का चलन ज्यादा है तो यह शादी की एक रस्म जैसा इवेंट बन गया है। फ़िल्मी गीतों पर सारे डांस होते हैं।” 
उन्होंने कहा कि “बारात में बैंड बाजे वाले भी सिर्फ फ़िल्मी गाने ही बजाते हैं जिन पर रास्ते भर लड़के-लड़कियां नृत्य करते चलते हैं।  इधर, प्री वेडिंग शूट का नया चलन जोरों पर है जिसमें शादी से पहले ही विभिन्न लोकेशंस पर दूल्हा-दुल्हन के सीन फ़िल्मी अंदाज़ में फिल्माए जाते हैं और इनमें फ़िल्मी गानों का ही इस्तेमाल  होता है।  विवाह की विभिन्न रस्मों के दौरान अकसर गाये जाने वाले गीत भी अब फ़िल्मी गीतों की तर्ज़ पर रच लिए गए हैं।  विदाई के वक्त आपको नीलकमल का बाबुल की “दुआएं लेती जा जा तुझको सुखी संसार मिले”, मदर इण्डिया का ‘पी के घर आज प्यारी दुल्हनिया चली”, सरस्वती चन्द्र का “मैं तो भूल चली बाबुल का देश” , हम आपके हैं कौन का “बाबुल जो तुमने सिखाया सजन घर ले चली”, कोयल का “मेरे बागों की कोयल बागों को छोड़ कहाँ चली रे”,  प्रेम रोग का ये गलियाँ ये चोबारा”,  “दाता” का “बाबुल का यह घर बहना कुछ दिन का ठिकाना है”  और अभी नया नया फिल्म राजी का “मुड़ के ना देखो दिलबरो” आदि आदि सुनाई देंगें।  ऐसा ही धार्मिक कार्यक्रमों में भी हो रहा है. जागरण हो या भजन संध्या या मंदिरों अथवा घरों में कीर्तन आदि आपको सब कुछ फ़िल्मी धुनों पर ही रचा हुआ सुनाई देगा। यहाँ तक कि स्कूलों में होने वाले उत्सव –पर्वों में भी फ़िल्मी गानों की धुनों पर गीत रचे जाते हैं. यहाँ तक की होली , रक्षा बंधन और मकर संक्राति सरीखे त्यौंहारों पर गाये जाने वाले लोक गीत की जगह भी अब फ़िल्मी गानों ने हथिया ली है। ”


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