सिनेमाई आजादी पर मंडराते खतरे


ऐसा लगता है कि निर्माता अनुराग कश्यप और निर्देशक अभिषेक चौबे की फिल्म 'उड़ता पंजाब' के मामले में केंद्रीय फिल्म प्रमाणीकरण बोर्ड- सीबीएफसी की जो किरकिरी हुई, उससे बोर्ड ने कुछ सबक नहीं सीखा। फिल्म 'उड़ता पंजाब' के मामले में बॉम्बे हाईकोर्ट ने साफ कहा कि देश में लोगों की रचनात्मक आजादी में दखल देने का किसी को अधिकार नहीं है, भले ही वो सेंसर बोर्ड ही क्यों ना हो। इसके बावजूद सीबीएफसी ने 'उड़ता पंजाब' के बाद गुजराती फिल्म 'सलगतो सवाल अनामत' यानी आरक्षण एक सुलगता सवाल फिल्म को पास करने से इनकार कर दिया है। सीबीएफसी ने इस फिल्म में करीब 100 कट करने को कहा है और कई संवादों से पटेल शब्द हटाने को भी कहा है। फिल्म के निर्माताओं के अनुसार बोर्ड का कहना है कि इसमें बाबा साहब अंबेडकर का नाम और फिल्म के लीड केरेक्टर के आंदोलन से जुड़े एक नेता जैसे लगने से कानून व्यवस्था का प्रश्न हो सकता है। इस फिल्म के निर्देशक राजेश गोहिल का कहना है कि उनकी यह फिल्म हार्दिक पटेल पर आधारित नहीं है। इसमें पाटीदार आरक्षण का एक अलग नजरिया लिया गया है। इसमें ऐसा कुछ भी नहीं है जो बाबा साहब अंबेडकर के खिलाफ है। दूसरी फिल्म 'पावर ऑफ पाटीदार' तो पाटीदार आंदोलन के नेता हार्दिक पटेल पर ही आधारित है। इसलिए इस फिल्म के निर्माताओं को अभी से लगने लगा है कि उनकी फिल्म भी सेंसर के विवादों में फंस सकती है। अब सरकार उनकी फिल्म का विरोध न करे इसलिए उन्होंने एक खत लिखकर गुजरात की मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल को पहले ही फिल्म देखने का न्यौता दे दिया है। जाहिर है कि सीबीएफसी की कार्यप्रणाली को लेकर फिल्मकारों के मन में अब भी संशय का भाव है। और ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। पूर्व में भी अनेक अवसरों पर फिल्म प्रमाणीकरण बोर्ड ने, जिसे बोलचाल की जुबान में सेंसर बोर्ड कहा जाता है, अपनी सीमाओं के पार जाकर फिल्मों पर पाबंदी लगाने का प्रयास किया है। हालांकि ऐसी तमाम कोशिशों का हर मोर्चे पर जमकर विरोध हुआ है और हर बार यही बात रेखांकित की गई है कि किसी फिल्म को प्रतिबंधित करने या उसमें काट-छांट करने का अर्थ है लोगों की उस आजादी का हनन करना जो उन्हें देश के संविधान से हासिल हुई है। इसके बावजूद सेंसर बोर्ड ने अपनी कार्यप्रणाली में बहुत ज्यादा फेरबदल नहीं किया है।
निर्माता अनुराग कश्यप की फिल्म 'उड़ता पंजाब' में सेंसर बोर्ड द्वारा कट लगाए जाने के मुद्दे पर फैसला सुनाते हुए बॉम्बे हाईकोर्ट ने कहा कि फिल्म देश की एकता और अखंडता पर सवाल नहीं उठाती। कोर्ट ने कहा कि हमने यह जांचने के लिए कि क्या फिल्म ड्रग्स को बढ़ावा देती है पूरी स्क्रिप्ट पढ़ी है। फिल्म शहरों के नाम, राज्यों और साइनपोस्ट के जरिए भारत की एकता और अखंडता को चुनौती देती हो ऐसा कहीं नहीं दिखा। हर किसी के लिए इसमें दखल देना जरूरी नहीं है। अदालत ने सीबीएफसी के मुखिया पहलाज निहलानी से यह भी कहा कि आपका काम फिल्मों को प्रमाणित करना है, उनको सेंसर करना नहीं। हाईकोर्ट ने माना कि कोई भी एक फिल्मकार को नहीं बता सकता कि फिल्म कैसे बनाते हैं। कोर्ट ने कहा, सीबीएफसी के पास सेंसर करने का अधिकार नहीं है। जब तक कि रचनात्मक आजादी का हनन न हो कोई दखल नहीं दे सकता। हाईकोर्ट ने साथ ही माना कि फिल्म मेकर्स ने पंजाब में ड्रग की समस्या को दिखाने का फैसला किया है। फिल्म किसी वास्तविक घटना से प्रेरित नहीं है। अदालत ने अपने फैसले में साफ किया कि बोर्ड को बदलते वक्त के साथ अपनी सोच और रवैया बदलने की जरूरत है और कुछ चीजें दर्शकों के विवेक पर भी छोड़ दी जानी चाहिए। कोर्ट की इन टिप्पणियों के बाद सेंसर बोर्ड ने फिल्म को 'ए' श्रेणी के तहत 13 कट के साथ पास कर दिया।
इस पूरे मामले में सबसे खास बात यह रही कि पूरा फिल्म उद्योग 'उड़ता पंजाब' और इसकी टीम के साथ खड़ा नजर आया। सोशल मीडिया पर भी फिल्म को जबरदस्त समर्थन मिला और आम सिने प्रेमियों के साथ संजीदा फिल्मकार भी सेंसर की कार्यप्रणाली से खफा नजर आए। इससे यह संदेश मिला कि मौजूदा दौर में रचनात्मक आजादी पर किसी किस्म का पहरा लोगों को कतई मंजूर नहीं है। नामचीन फिल्मकार शेखर कपूर, जो नब्बे के दशक में अपनी फिल्म 'बैंडिट क्वीन' को लेकर सेंसर बोर्ड से ऐसी ही लड़ाई लड़ चुके हैं, उन्होंने 'उड़ता पंजाब' के निर्माताओं से कहा कि वे सेंसर बोर्ड के साथ अपनी लड़ाई में किसी लिहाज से कमजोर नहीं पड़ें। शेखर कपूर ने कहा कि फूलन देवी के जीवन पर आधारित फिल्म 'बैंडिट क्वीन' के लिए वे भी इन हालात से गुजर चुके हैं। फिर उन्होंने उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाया था और वहां से राहत मिलने के बाद वे अपनी फिल्म को रिलीज करने में कामयाब रहे थे। 
बॉलीवुड के दूसरे तमाम फिल्मकार और कलाकार भी इस मामले में अनुराग कश्यप और उनकी टीम के साथ खड़े नजर आए। यहां तक कि फिल्मों के प्रमाणीकरण की प्रक्रिया में सुधार के लिए गठित कमेटी के अध्यक्ष जाने-माने फिल्मकार श्याम बेनेगल ने भी इस मामले में खुलकर अभिव्यक्ति की आजादी का पक्ष लिया और साफ कहा कि वे किसी भी फिल्म को सेंसर करने के सख्त खिलाफ हैं। उन्होंने स्पष्ट कहा कि फिल्मों को बैन करने या दृश्यों को हटाने की बजाय आप दर्शकों को यह सुझाव दे सकते हैं कि यह एक अलग तरह की फिल्म है। श्याम बेनेगल ने यह भी कहा कि बोर्ड को समय के साथ बदलने की जरूरत है। समाज में समस्याएं हैं तो वो दिखाई जानी चाहिए। फिल्मों को रोक देना कोई समाधान नहीं होता है।
दरअसल पिछले साल सीबीएफसी के मुखिया का पद संभालने के बाद से ही पहलाज निहालानी लगातार विवादों में घिरे रहे हैं। उन्होंने फिल्मों के प्रमाणन के लिए कुछ नए दिशा निर्देश जारी किए और इसके बाद अंग्रेजी और हिंदी के कुछ आपत्तिजनक शब्दों की सूची जारी की। ये ऐसे शब्द थे जिनका फिल्मों में इस्तेमाल करना मना था। बाद में जब इस सूची पर हंगामा हुआ तो निहालानी ने यह सूची वापस ले ली। इसके अलावा उन्होंने 'ए' सर्टिफिकेट हासिल करने वाली फिल्मों के टेलीविजन पर प्रसारण पर भी रोक लगा दी थी। इस प्रतिबंध में वे फिल्में भी शामिल थीं, जिनके आपत्तिजनक दृश्यों को हटाकर उन्हें टीवी पर प्रसारण के काबिल बनाया गया था। फिर फिल्म इंडस्ट्री के कड़े विरोध के बाद निहालानी ने अपने इस आदेश को भी वापस ले लिया था।
पहलाल निहालानी का विरोध सिर्फ फिल्म इंडस्ट्री ने ही नहीं किया, बल्कि सीबीएफसी के भीतर भी उनकी कार्यप्रणाली को लेकर तमाम सवाल उठाए गए। सीबीएफसी के सदस्य अशोक पंडित और चंद्रप्रकाश द्विवेदी ने तो उन पर तानाशाही रवैया अपनाने का आरोप लगाया। इन दोनों सदस्यों ने यह भी कहा कि निहालानी सीबीएफसी के भीतर अराजकतापूर्ण माहौल बनाए रखते हैं। जेम्स बॉण्ड शृंखला की फिल्म 'स्पेक्टर' को लेकर जो विवाद हुआ, उसने सीबीएफसी की प्रतिष्ठा को बुरी तरह धूमिल किया। निहालानी के निर्देश पर इस फिल्म में अनेक चुंबन दृश्यों पर कैंची चलाई गई। सब जानते हैं कि जेम्स बॉण्ड शृंखला की फिल्मों में इस तरह के दृश्य आम हैं और देश में रिलीज इन फिल्मों में पूर्व में भी ऐसे दृश्य दिखाने की अनुमति दी गई थी। इसी तरह अभिनेत्री अनुष्का शर्मा की फिल्म 'एनएच 10' को भी रिलीज से पहले सेंसर की मुश्किलों से गुजरना पड़ा। ऑनर किलिंग जैसे हार्ड कोर विषय पर आधारित इस फिल्म के अनेक दृश्यों पर सेंसर ने कैंची चलाई और तब कहीं इसे प्रदर्शन की अनुमति मिली। इस दौरान पहलान निहालानी की खूब आलोचना भी हुई। बहरहाल,  'उड़ता पंजाब' के मामले के बाद फिल्म इंडस्ट्री के दिग्गजों का मानना है कि अब सेंसर बोर्ड के काम करने का तरीका बदलेगा और यह सिर्फ इस बात का प्रमाणपत्र देगा कि फिल्म को किस दर्शक वर्ग को दिखाया जाए। इंडस्ट्री के लोगों को यह भी उम्मीद है कि कोर्ट के इस फैसले के बाद अब फिल्मकारों को फिल्में रिलीज करने में आसानी होगी। दूसरी तरफ कुछ ऐसे लोग भी हैं जो मानते हैं कि 'उड़ता पंजाब' से जुड़ा विवाद एक ऐसा मौका है जब फिल्मों और टीवी को सेंसर करने की स्वस्थ परंपराओं की शुरुआत की जा सकती है। 

- सीबीएफसी को बहुत ज्यादा बाल की खाल नहीं निकालनी चाहिए और अपना रवैया ऐसा रखना चाहिए ताकि फिल्म उद्योग में रचनात्मक लोग आगे बढ़ सकें। बोर्ड को इतना भी छिद्रान्वेषी नहीं होना चाहिए, क्योंकि हम चाहते हैं कि रचनात्मक लोग फिल्म उद्योग में बने रहें।
- सीबीएफसी को फिल्मों को सेंसर नहीं, बल्कि प्रमाणित करने का काम करना चाहिए और फिल्म की किस्मत तय करने का अधिकार दर्शकों के विवेक पर छोड़ देना चाहिए।
- निर्माता का विचार यदि किसी स्थान या व्यक्ति के प्रति विवेचनात्मक रहने का हो, तो उस स्थान या व्यक्ति को दिखाना ही पड़ेगा (फिल्म 'उड़ता पंजाब' के शीर्षक से पंजाब शब्द को हटाने के संदर्भ में)।
- फिल्म निर्माताओं को भी अश्लील और अपशब्दों को कम करना चाहिए, क्योंकि फिल्में केवल इनके दम पर नहीं चलतीं। आज की पीढ़ी बेहद उन्मुक्त और परिपक्व है, सिर्फ अपशब्दों का इस्तेमाल ही फिल्म की सफलता का निर्णय नहीं करता।
- अधिकतर फिल्में मल्टीप्लैक्स में इसलिए असफल हो रही हैं कि दर्शक अपशब्दों के अत्यधिक इस्तेमाल से ऊब गए हैं। फिल्म की विषयवस्तु मायने रखती है। एक रचनात्मक मस्तिष्क को फिल्म में अपशब्दों के इतना इस्तेमाल करने की मूर्खता का पता चलेगा। उन्हें (फिल्म निर्माताओं को) उनकी गलतियों से सीखने दीजिए।


Popular posts from this blog

देवदास: लेखक रचित कल्पित पात्र या स्वयं लेखक

नई चुनौतियों के कारण बदल रहा है भारतीय सिनेमा

‘कम्युनिकेशन टुडे’ की स्वर्ण जयंती वेबिनार में इस बार ‘खबर लहरिया’ पर चर्चा