हिंदी पत्रकारिता के शिखर पुरुष- राजेंद्र माथुर
जो लोग यह मानते हैं कि इस दुनिया से किसी के चले जाने से कहीं कोई फर्क नहीं पड़ता और जिंदगी अपनी रफ्तार से आगे बढ़ती रहती है, उन्हें राजेंद्र माथुर की मृत्यु से पैदा हुए खालीपन और मौजूदा दौर में पत्रकारिता के पराभव पर गौर से नजर डालनी चाहिए। शायद उन्हें इस बात का अहसास हो जाए कि किसी शख्स के चले जाने से फर्क तो पड़ता है। खास तौर पर तब जब जाने वाला शख्स पत्रकारिता के प्रतिमानों को लेकर प्रतिबद्ध हो और जिसके लिए पत्रकारिता एक पेशा होते हुए भी सामाजिक सरोकारों से युक्त एक ऐसा मंच था, जहां सिर्फ सत्यनिष्ठा और इंसाफ के लिए जगह होनी चाहिए।
आज राजेंद्र माथुर हमारे बीच नहीं हैं और ऐसा लगता है कि उनके चले जाने के साथ ही पत्रकारिता के उच्च मानदंड भी तिरोहित हो गए हैं। आज संपादक नामक संस्था का अस्तित्व भी समाप्त प्राय हो गया है। अखबारों में वैचारिक आजादी को प्रश्रय देने वाला संपादकीय पेज अब बीते दिनों की बात बन गया है। भाषाई संस्कारों की बात करना और नई पीढ़ी के पत्रकारों को लिखने-पढऩे की सलाह देना एक बड़ा जोखिम बनता जा रहा है। ज्यादातर अखबार अब पाठकों के हितों की बजाय बाजार के हितों के रक्षक बन गए हैं, ऐसी सूरत में राजेंद्र माथुर की याद आना स्वाभाविक है।
एक क्षेत्रीय अखबार 'नईदुनिया' के साथ अपने पत्रकारिता जीवन की शुरुआत करने वाले राजेंद्र माथुर ने भाषाई पत्रकारिता को उन ऊंचाइयों तक पहुंचाया, जहां पहुंचने की ललक हर उस प्रकाशन को होती है, जो एक व्यापक पाठक समुदाय के समर्थन की चाहत रखता है। राजेंद्र माथुर मूलत: अंग्रेजी के प्राध्यापक थे, पर उन्होंने हिंदी की पत्रकारिता को नई भाषा प्रदान की। यह ऐसी भाषा थी, जिसे आम पाठकों के साथ-साथ बौद्धिक वर्ग ने भी पसंद किया। जाहिर है कि उनके लिए पाठकों की पसंद-नापसंद सर्वोपरि थी, पर उन्होंने कभी पाठकों की अभिरुचियों को कुत्सित करने का प्रयास नहीं किया। पाठक क्या पढऩा चाहते हैं- इस सवाल की बजाय उन्होंने इस बात पर फोकस किया कि पाठकों को क्या पढऩा चाहिए। सनसनीखेज, मनोरंजक सामग्री के स्थान पर उन्होंने जानकारीपूर्ण और उपयोगी सामग्री को तरजीह दी। राजेंद्र माथुर के संपादन काल में शालीन और संयत भाषा में समाचारों की प्रस्तुति 'नईदुनिया' की अपनी खास पहचान थी। तब अखबार इतना शालीन हुआ करता था कि समाचारों के शीर्षक में भी लोगों के नाम या उपनाम के साथ 'श्री' का इस्तेमाल किया जाता था। आज जबकि ज्यादातर अखबार अपनी आक्रामक शैली बनाने के लिए आतुर हैं, वहां अस्सी के दशक में 'नईदुनिया' की ऐसी सादगी और सरलता बरबस ही पाठकों का मन मोह लेती थी।
भारतीय पत्रकारिता में अनूठी छाप छोडऩे वाले राजेन्द्र माथुर ने मध्यप्रदेश के धार जिले के छोटे से कस्बे बदनावर से अपना सफर शुरू किया था। हिंदी की पत्रकारिता को उन्होंने एक मुहावरा दिया और अपने लेखन की रूपक शैली में नए-नए मुहावरे गढ़ते चले गए। उन्होंने अपनी जिन्दगी में दो अखबारों के लिए काम किया। 'नईदुनिया' और 'नवभारत टाइम्स'। इन दोनों ही अखबारों में उन्होंने ऐसे पत्रकारों को प्रशिक्षित किया, जिन्होंने सम्पूर्ण हिन्दी जगत की पत्रकारिता का नेतृत्व किया और अब भी कर रहे हैं। दूसरे प्रेस आयोग के सदस्य के रूप में उन्होंने पूरे प्रेस जगत की ही दिशा बदल दी। उन्होंने युवा पत्रकारों को लेखन, सम्पादन और रिपोर्टिंग की नई-नई शैलियों से परिचित कराया। साथ ही प्रतिभावान पत्रकारों को आगे बढ़ाने में प्रमुख भूमिका निभाई। वे कहते थे कि हिन्दी का साम्राज्य काफी बड़ा है और यह और भी ज्यादा व्यापक हो सकता है। इसीलिए 'नवभारत टाइम्स' के प्रधान संपादक बनने के बाद उन्होंने हिंदी भाषी राज्यों से इसके संस्करण शुरू किए। इन संस्करणों को पूरी तरह स्थानीय बनाने की बजाय उन्होंने इन्हें राष्ट्रीय समाचार पत्र के क्षेत्रीय संस्करणों के तौर पर प्रतिष्ठित किया। यह प्रयोग बहुत सफल रहा और 'नवभारत टाइम्स' के क्षेत्रीय संस्करणों ने हिंदी पत्रकारिता जगत में धूम मचा दी। इन अर्थों में हम कह सकते हैं कि हिंदी के अखबारों के क्षेत्रीय संस्करणों का जो स्वरूप हम आज देख रहे हैं, इसकी कल्पना माथुर साहब ने अस्सी के दशक में ही कर ली थी। वे सम्पादकीय पेज खुद एडिट करते थे और आम तौर पर सम्पादकीय भी खुद लिखते थे। जब उन्हें फुरसत मिलती तब किसी और को सम्पादकीय लिखने का मौका देते और फिर पूरा वक्त देकर उस सम्पादकीय टिप्पणी को मांजते-चमकाते। मकसद होता था, दूसरे लेखकों को मौका और प्रशिक्षण देने का। आमतौर पर सम्पादकीय पेज छपने वाले पत्रों का भी चयन और संपादन वे खुद करते थे और यही कारण था कि उन दिनों संपादक के नाम पत्र कॉलम बेहद लोकप्रिय हुआ करता था और लोग अखबार आते ही सबसे पहले यह कॉलम पढऩा पसंद करते थे।
वास्तव में माथुर साहब समाज के हर व्यक्ति की गरिमा की रक्षा के पक्षधर थे। उनके लेखन में बेहद पैनापन था, लेकिन किसी तरह का पूर्वाग्रह और दुर्भावना का अंश कभी देखने को नहीं मिला। पं. नेहरू को आदर्श मानने के साथ वे स्वयं सच्चे अर्थों में 'डेमोक्रेट' संपादक थे। अपने सहकर्मियों की राय को सुनने तथा लेखन के लिए पूरी स्वतंत्रता देने के साथ ही पाठकों के पत्रों की राय को सम्मान देना उन्हें बहुत अच्छा लगता था। 'नईदुनिया' और 'नवभारत टाइम्स' में अत्यंत व्यस्त प्रधान संपादक रहकर भी वे पाठकों के अधिकांश पत्र खुद पढ़ते और संपादित करते थे। वे कहते थे-'यदि देश कहीं दो बुनियादों पर टिका है तो वह राजनेताओं पर कम और न्यायपालिका तथा पत्रकारिता पर ज्यादा टिका है, क्योंकि जब कहीं आशा नहीं रहती तो निराश व्यक्ति या तो अदालत के दरवाजे खटखटाता है और उम्मीद करता है कि अमुक प्रकरण में उसे न्यायालय से न्याय मिलेगा। या फिर वह अखबार के दफ्तर में जाता है, जहाँ सबको लगता है कि जहाँगीर के जमाने की घंटी लगी है जिसको यदि बजाएँगे तो एकदम संपादक नामक जहाँगीर आएँगे और न्याय करके ही उसे वापस लौटाएँगे।' इस महती अपेक्षा को पूरी करने के लिए माथुर साहब जीवनभर जिम्मेदार पत्रकारिता पर बल देते रहे।
उनके बारे में ठीक ही कहा जाता है कि राजेन्द्र माथुर व्यक्ति नहीं, विचार थे। माथुर ने नए दौर के पत्रकारों और लेखकों के लिए पत्रकारिता के आदर्श मानदण्ड स्थापित किए। वरिष्ठ पत्रकार और विचारक रामबहादुर राय ने उनके बारे में ठीक ही लिखा है कि 'माथुर साहब ने कभी किसी विचारधारा का अंध समर्थन नहीं किया। उनकी पत्रकारिता विशुद्ध राष्ट्रवाद को समर्पित थी। जड़ता की स्थिति में पहुंचाने वाली विचारधाराओं से उन्होंने सदैव दूरी बनाए रखी। पत्रकार के रूप में विचारधारा से ऊपर उठकर वे पत्रकारिता के मिशन में लगे रहे। वर्तमान समय में जब पत्रकार विचारधाराओं के खेमे तलाश रहे हैं, ऐसे वक्त में राजेन्द्र माथुर की याद आना स्वाभाविक है।' इसी तरह लेखक-विचारक विष्णु खरे की उनके बारे में राय है कि 'राजेन्द्र माथुर जैसे प्रत्येक व्यक्ति के चले जाने के पश्चात ऐसा कहा जाता है कि अब ऐसा शख्स दुबारा दिखाई नहीं देगा। लेकिन आज जब हिंदी तथा भारतीय पत्रकारिता पर निगाह डालते हैं और इस देश के बुद्धिजीवियों के नाम गिनने बैठते हैं, तो राजेन्द्र माथुर का स्थान लेता कोई दूसरा नजर नहीं आता। बड़े और चर्चित पत्रकार बहुतेरे हैं, लेकिन राजेन्द्र माथुर जैसी ईमानदारी, प्रतिभा, जानकारी और लेखन किसी और में दिखाई नहीं दी।' इसमें कोई संदेह नहीं कि राजेंद्र माथुर हमें छोडक़र नहीं जाते, तो संपादक नामक संस्था की अकाल मौत नहीं होती, अखबार के सरोकार ज्यादा जनोन्मुख होते, पत्रकारिता का चेहरा भी और उजला होता और पत्रकारिता का एक ऐसा स्वरूप हमारे सामने होता जिस पर हमें गर्व होता।