‘ डिस्पाइट द फॉग’ के प्रदर्शन के साथ 50वां भारतीय अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव शुरू
पणजी। इतालवी फिल्म ' डिस्पाइट द फॉग' की स्क्रीनिंग के साथ 50वें भारतीय अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव का गोवा में शुभारंभ हुआ। फिल्म के कलाकारों के साथ संवाददाता सम्मेलन को संबोधित करते हुए निर्देशक गोरान पास्कलजेविक ने कहा कि यह फिल्म यूरोप के नाबालिग शरणार्थियों से जुड़े गंभीर मुद्दों पर मंथन करती है। पास्कलजेविक 44 वें भारतीय अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में जूरी प्रमुख थे। उन्होंने कहा, 'यह एक अंतरंग कहानी है। इस विषय पर पहले भी कई फिल्में बन चुकी हैं, लेकिन यह कहानी इस बारे में है कि यूरोप में लोग शरणार्थियों को स्वीकार करते हैं या नहीं करते हैं और ज्यादातर मामलों में वे शरणार्थियों को स्वीकार नहीं करते हैं। यह क्षेत्र में प्रचलित भय रूपी कोहरे का अन्वेषण करने के लिए एक उपमा के रूप में पेश करता है।”
निर्देशक ने फिल्म का इस्तेमाल शरणार्थी समस्या पर अपने विचारों को खंगालने के लिए भी किया। उन्होंने कहा “मैंने सोचा कि अगर मुझे कोई बेसहारा बच्चा मिल जाए, तो मैं क्या करूंगा, क्या मैं उसे अपने साथ ले जाऊंगा? या उसे छोड़ दूंगा। इस तरह मैंने कहानी को बुनना शुरू किया।
फिल्म के निर्माताओं में से एक मेरीलिया ली साची ने संवाददाता सम्मेलन में कहा कि उन्हें गोरान का काम अच्छा लगता है और जब उन्हें इस फिल्म की पटकथा पढ़ने का मौका मिला तो वह उन्हें बेहद पसंद आई। उन्होंने कहा, 'ये फिल्म मुख्यधारा की फिल्म नहीं है, बल्कि एक राजनीतिक वक्तव्य है। इसका विषय यूरोप की, विशेषकर इटली की एक बड़ी समस्या की ओर इशारा करता है। यह समस्या दिनों दिन विकराल होती जा रही है। मुझे यह फिल्म इसलिए भी अच्छी लगी क्योंकि यह वृत्तचित्र की शैली में न होकर काव्यात्मक रूझान वाली है।' फिल्म में शरणार्थी का किरदार निभाने वाले बाल कलाकार अली मूसा ने कहा, 'मैं खुश था क्योंकि गोरान ने मेरी मदद की। मैंने बड़े अभिनेताओं से सीखा कि फिल्म का प्रचार किस तरह करना है।' शरणार्थी समस्या के समाधान के बारे में पूछे जाने पर निर्देशक ने कहा कि केवल यही रास्ता है कि 'युद्ध ना लड़े जाएं'। उन्होंने कहा, 'कोई भी अपना घर, अपने दोस्तों और अपनी संस्कृति को छोड़कर नहीं जाना चाहता।'
यह फिल्म उन शरणार्थियों की पीड़ा दर्शाती है जिन्हें सड़कों पर लाकर बेसहारा छोड़ दिया गया। फिल्म में एक रेस्टोरेंट के मैनेजर पाओलो को सड़क पर एक आठ साल का बच्चा मिलता है और वह उसे अपने घर ले जाने का फैसला करता है। निर्देशक इस बात की पड़ताल करते है कि समाज उस बच्चे की मौजूदगी पर कैसी प्रतिक्रिया व्यक्त करता है।